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लाराधना
आश्वासः
ग्रहण करने के लिय आचार्यक पास आते हैं उनको भी अपने गणमें स्वीकारते हैं. जितने मुनिओंसे गण कम हैं उतने प्रमाणका गण करके उसमें परिहारक और अनुपरिहारककी व्यवस्था करते हैं. इसलिये परिहारसंयममें प्रवेश करनेवाले अनुपरिहारक मुनि एक दो और तीन होते हैं.
यदि तीन युनि गणमें होंगे तो एक गणी है, दुसरा मुनि परिहार संयमको स्वीकार करनेवाला होता है और तिसरा अनुपरिहारी होता है. यदि गणमें पांच मुनि होंगे तो एक कल्पस्थित आचार्य, दो मुनि परिहार संयमके धारक और दो मुनि अनुपरिहारक समझने चाहिये. यदि सात मुनि होंगे तो उसमें एक गणी, तनि परिहारसंयमी और नीन अनुपरिहारक मुनि होते हैं. यदि नो मुनि हो मो एक गणी पार परिहारफ मुनि और चार अनुपरिहारी मुनि समझाने चाहिये. हमाम होने के बाद अनुपरिहारी गुनि परिहारगया में पूर्ण पायर होता है. नेसर अनुपरिहार्ग परिहार गयमको ग्रहण करता है, वह भी छह गागर्म परिहारमें निविष्ट होता है. सबनेगर फापस्थित आचार्य जो कि अनुपरिहार तथा परिहारक होता है. वहभी हमासके अनंतर परिहार में निविष्ट होता है. इस गनास तीन निओंको परिहारके प्रवेश प्रमाणसे अठारहमास परिहार चरित्रमें लगते हैं.
अब परिहार संयत मुनिओका लिंगादिक आचार क्रम कहते हैं
परिहार संयतमुनि वसति और आहारको छोड़कर अन्यका स्वीकार नहीं करते हैं. तृण, फलक, आसन, चटाइ आदिक यमके लिये ग्रहण करते हैं. पिच्छिका भी मेयमके लिये पाम रखते हैं. शरीरमे प्रेम हटाकर पार प्रकार के उपमग सहन करते हैं. उनमें दृढ धेय होनेसे वे ध्यानमें निरंतर निमग्न रहते हैं. हमारेमें बलवीर्य और सर्व गुण है नथापि यदि हम गणमें निवास करेंगे तो हम वीर्याचार आचरणमें कैसा ला सकेंगे गया समझकर व नीन, पांच मान अथवा नो एपणाके लिये आहारके लिये जाते हैं. (१)रोगसे और वेदनासे पीडित होनेपर भी उसका इलाज नहीं करते हैं. अयोग्य आहारको छोड़ देते हैं. वाचना, प्रच्छना, और परिवर्तन रूप स्वाध्यायको छोड सूत्रार्थ पौरुषीमें भी (?) सूत्रार्थकाही वारवार अनुमनन करते हैं. इस रीतसे आठों प्रहरीमें भी निद्राका त्याग कर ध्यान करते हैं. चिंतन करते हैं, स्वाध्याय कालमें प्रतिलेखनादि क्रिया अर्थात् पिच्छिकामे अंग पोछना वगैरह क्रियायें इनको नहीं होती है। क्योंकि श्मशानमें भी उनको ध्यानका निषेध नहीं है। यथाकाल में आवश्यक क्रियायें वे करते हैं. सायंकाल-सूर्यास्त समय और सूर्योदयके समयमें उपकरणोंको शुद्ध
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