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________________ मुलाराधना आश्वासः पुव्वं कारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाले ॥ होदि हु परीसहसहो विसयसुहपरम्मुहो जीवो ॥ १९३ ॥ अकारिततपोयोग्यश्चिरं विषयमूछितः॥ न जीवो मृत्युकालेऽस्ति परीषहसहस्तथा ॥ १९३ ।। विधापितः क्रियां योग्यां सर्वदा दुःखवासितः ।। वायमानो यथा चाजी कार्यकारी रणक्षितौ ॥ १९४ ।। विधापितस्तपो योग्यं हृषीकार्थपरामुखः ।। जायते मृत्युकालेगी परीषहसहस्तथा ।। १०५॥ अर्थ-यदि पूर्व कालमें तपश्ररण नहीं किया होय तो मरणकालमें समाधिकी इच्छा करता हुआ भी परीपहोंको सहन नहीं करता है अतः बह विषयसुखोंमें आसक्त हो जाता है. जिससे भ्रमण करना, उलंघन करना वगैरह कार्योका अभ्यास कराया गया है तथा जिसको क्षुधा, तृषा, शीत, उष्पा इत्यादि दुःखोंका चिरकालतक अभ्यास कराया है, ऐसा अश्व रणभूमीमें ले जानेपर वह स्वामीके शत्रुको जीतनेका कार्य करता है. यतिने भी पूर्व कालमें यदि तप किया हो तो परीषदोंको सहन कर समाधिकी इच्छा करनेवाला होकर मरणकालमें विषयसुखमें वह मूर्छित-आसक्त नहीं होता है, श्रुतमाहात्म्य प्रकटयति सुदभावणाए गाणं दसणतवसंजमं च परिणबह ॥ तो उवओगपइण्णा सुहमन्त्रविदो समाणेइ ॥ १९४ ॥ चतुरंगपरीणामश्रुतभावनया परः निव्र्याक्षेपः प्रतिज्ञातं स्व निर्वाहयते ततः ॥ १९६ ॥ विजयोदया-सुदभाषणाए । भूयते इति श्रुतमित्यस्यां व्युत्पत्तौ शब्दश्रुतमुच्यते । तस्य भाषना नाम तदर्थ विषयज्ञानासकृत्प्रवृत्तिः । ननु राम्दश्रुतस्यासकृत्पठनं भुतभावना स्थात्, भानं ततोऽर्थान्तरं अत्रोच्यते-भुतकार्यशाने
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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