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मूलारामना
बाधास:
एनाचिदितवेदितव्यस्य । परिहार्यमशेष उग्रतः परिह यतिजनः पापमयशश्च न परिहरेत् । तथा च लोकः
काये पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपाति यत् ॥
नर पतितकायोऽपि यशःकायेन धार्यते । आर्याससंगदोपान् गाथानवकनाइ
मूलारा-आगिविससरिसं चितमतापापादनादमिना संयमजीबितविनाशनाद्विषेण च तुल्यमार्जकासंसर्ग यूयं त्यजत । अकीर्ति पापादकीर्तेश्च प्रायेण पृथरजनोऽपि निभति किं पुनर्विरितवेदितव्यस्त्याज्यमशेष त्युक्तुमुक्तो यत्तिजनः । अर्जिकानुवृत्तिश्च मिझोर चिरादयशस्करीति सुनर्ग परिहायेति तात्पर्यम । जथा र लोको वक्ति-काय पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपाति यत् । नरः पतितकामोऽपि यशःकायन धायते ॥
अर्थ-हे साधुगण! तुम प्रमाद छोडकर आर्यिकाका सहवास छोडो, क्योंकि आर्यिकाका सहवास अग्नि और विषके समान है. चित्तमें संताप उत्पन्न करता है इसलिये यह सहवास अग्नितुल्य है. और संयमरूपजीवितका हरण करता है इस वास्त यह विषतुल्य है. आर्यिकाका अनुसरण करनेवाला साधु निश्चयसे और शीघ्र ही अपकीर्तिका स्थान बनता है. प्रायः पाप और अकीती से डरनेवाले मिथ्या दृष्टि और असंयमी सामान्य लोक भी उत्तम आचरण करते हैं. परंतु मुनि तो योग्यायोग्य सब जानते ही हैं उनके लिये क्या कहना चाहिये, अर्थात् उन्होने तो अवश्य आर्यिकाका साथ छोडनाही चाहिय. जितने त्याज्य पदार्थ हैं उनको त्याग लिय मुनिजन उक्त होने हैं इस लिये उनको पाप और अयशका जरूर त्याग करना चाहिये, यशके विषयमें आचार्य एमा कहते हैं
अर्थात् शरीर तो पडेगा ही उसकी हम कैसी रक्षा कर सकेंगे परंतु यशका संरक्षण करना हमारा परम कर्तव्य है, मनुष्य का शरीर छुटगया तो भी यशरूपी शरीरसं वह धारण किया जाता है. अर्थात् वह मरनेपर भी उसका यश जगतमें रहता है इसी लिये कीर्तिमान् मनुष्य हमेशा अमर रहता है ऐसा सज्जन कहते हैं.
थेरस्स वि तबसिरस वि बहुस्सुदस्स वि पमाणभूदस्स ॥ अज्जासंसम्गीए जणजपणयं हवेज्जादि ॥ १३१ ॥
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