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भाधा
मूलाराधना
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काठगदो पंचनमस्कार एष भुतकाने उपयुक्तः सन् कालगतः । महदिगो देयो जावो महाको देवो जातः ।
स्वल्पश्रुतका अभ्यास भी मरणकालमें महाफल देनेवाला होता है इस का विवेचन--
अर्थ-शूलपर चढाया दुआ रतशूर्प नामक चोर पंचनमस्कार मात्र श्रुतज्ञानमें चित्तकी एकाग्रता करके मरण को प्राप्त हुआ और स्वर्ग में महाऋद्धिशाली देव हुआ.
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ण य तम्मि देसयाले सब्बो बारसविधो सुदक्खंधो । सत्तो अणुचिंतेदुं बलिणा वि समत्वचिचेण ॥ ७७४ ॥ मृत्युकाले श्रुतस्कंधः समस्तो द्वादशांगकः ॥
बलिना शक्तिचित्तेन यतो ध्यातुं न शक्यते ॥ ८०४ ।। विजयो-सम्बो बारसाबधो यि सुदपलंधो तम्मि देसयाले ण य सको अणुचितेतुं बलिणा वि समत्थनितेण सों द्वादशविधोऽपि श्रुतस्कंधस्तस्मिन्मरण देशे काले च नैव शक्योऽनुस्मतुं नितरामपि समर्थचित्तेन । यहुश्रुतस्यापि न ध्यानालंयनं समस्तं कि तु किंचिदेव सूत्रं । तथा युतं 'पकाग्रचितानिरोघो ज्यानमिति'
__ अर्थ- मरणकालमें सर्व-वारा प्रकारका शुनस्कंधका चिंतन करना बलवान और समर्थ मनकं पुरुप द्वारा भी शस्य नहीं है. बहुश्रुत विद्वान मुनि भी संपूर्ण श्रुतज्ञान को आपने ध्यानका विषय नहीं बना सकते हैं. अर्थात किसी भी कालमें और किसी भी क्षेत्र में संपूर्ण श्रुतज्ञान ध्यानका विषय होता नहीं फिर मरण समय में संपूर्ण श्रुतज्ञान ध्यानका कैसा विषय हो सकेगा ? श्रुतज्ञानका कोइ एक सूत्र ध्यान में विचारा जा सकता है. इसी वास्ते ध्यानका लक्षण ' एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानं ' ऐसा कहा है.
BASANTANTREAMIMARANASPAL
एक्कम्मि वि जम्मि पढे संवेग वीदरायमग्गम्मि ।। गच्छदि परो अभिक्खं तं मरणते ण मोत्तव्वं ॥ ७७५ ॥ एकत्रापि पवे यन संवर्ग जिनभाषिते ॥ संपतो भजते तन्न स्यजनीयं ततस्तदा ॥ ८०५॥