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________________ मूलाराधना आश्वासा १५३३ यह क्षपक शुभध्यानोंमें क्यों मात्त होता है इस शंकाके उत्तरमें कारणका निवेदन करते हैं अर्थ-स्पर्शादिक विषयों में उत्पन्न हुआ जो उपयोग उसको यहां इंद्रिय कहते हैं. इंद्रिय और कषायोंका | संबंध नष्ट करनेकी यदि इच्छा हो, काँकी विपुल निर्जरा करनेकी यदि इच्छा हो, तो तू अपना चित्त स्वाधीन रखने का प्रयत्न कर. वस्तके यथार्थ स्वरूप को जाननेमें अपने मनको एकाग्र कर. जब मन स्वाधीन होता है तब इंद्रियोंके विषयके प्रति उपयोग नहीं लगता है और कषायों की भी उत्पत्ति नहीं होती है. चिसको अपने इष्ट विषयमें अर्थात उत्तम क्षमादिक धर्मों में स्थिर करना चाहिये. और अनिष्टविषयोंसे परावृत्त करना चाहिये. रत्नत्रयमार्गसे अपनी च्युति न हो ऐसी इच्छा करनेवाले क्षपक को अशुभ ध्यानका त्याग करना चाहिये. और शुभ ध्यानमें स्थिर रहना चाहिये. थानपरिकरप्रतिपावनायोत्तरगाथा किंचित्रि दिहिमुपावत्तइत्तु झाणे णिरुद्धदिछीओ !! अप्पाणहि सदि सधित्ता संसारमाक्खट्ठम् ॥ १७०६ ।। एकाग्रमानसश्चक्षुर्यावर्त्य परवस्तुतः ॥ आत्मनि स्मृतिमाधाय ध्यानं श्रयति मुक्तये ॥ १७७३ ।। विजयोदया-किंचिवि विटिमुपावसहनु पाहाव्यालोकात् किंचिच्चनुर्वावर्तभिवा । झाणे शिरुद्धदिछीओ एकविषये परोक्षशान निरुद्धचैतभ्यः। दृष्टिनिमिसे हिचैतन्य दृषिशब्दोऽप युक्तः । अपाणहि प्रान्मनि । सदि स्मृति । संधिप्ता संधाय । स्मृतिशब्दनात्र थुतक्षानेनावगतस्यार्थस्य स्मरणगुच्यते, संसारमोक्नई संसारधिमुक्तये ॥ प्रयोजनमुक्त्वा परिकाह--- मलारा-किचिधि किंचित्वं । दिष्टुिं चक्षुः । उच्चेसवितु उपावत्यै । बाह्यद्रव्यालोकनाट्यावर्त्य नासाने दृष्टि कृत्वेत्यर्थः । णिरुद्ददिट्ठीओ एकविषये परोक्षक्षाने निरुद्धचैतन्यः दृष्टिनिमित्ते हि चैतन्ये दृष्टिशब्दोत्र प्रयुक्तः । अप्पागम्मि स्वसंवेदनसुत्यक्ते शुद्धिचिपे स्वात्मनि । सदि श्रुतज्ञानाधिगतार्थस्मरणं । उक्तं च पूर्वश्रुतेन संस्कार स्वात्मन्यारोपयेसतः । तत्रैकाग्यं समासाच न किंचिदपि चिंतयेत् ।। १५३३
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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