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आश्वासा
मूलाराधना ६२४
पुनरपि उसी प्रकरणमें ऐसा उल्लेख है-अलायुपतं वा दारुगपचं वा, महिगपत्तं वा अप्पपाण, अप्प बीजं, अप्पसरिदं तथा अप्पकारं पत्तलामे सति पढिग्गहिस्सामि" अर्थात पात्र लाम होता हो तो मै तुंरीका पात्र अथवा लकडीका पात्र किंवा मट्टीका पात्र ग्रहण करूंगा. जिसमें जीव नहीं है, वीज नहीं है और जो बडा नहीं है ऐसा पात्र यदि मिलेगा तो मैं ग्रहण करूंगा.
वस्त्रपात्र यदि ग्राह्य नहीं है एसा आगमनालखा होता तोहमत्रांका आगमोम उलख ही नहीं आता.
भावनामें भी गमा कहा है-'घरमं चीवरधारि तेन पामचेलगे तु जिणे" अन्तिम तीर्थकरके शरीरपर वस्त्र था तो भी वे अचेलक जिन थे.
सूत्र कृतांगके पुंडरीक नामक अध्याय में भी ऐसा कहा है 'ण कहेज्जो धम्मक वत्थपत्तादिहेदमिति । वस्त्र और पात्र प्राप्त करने के उद्देशसे धर्मोपदेश नहीं करना चाहिए.
वस्त्रपायके विषयमें निषीध ग्रंथमें ऐसा प्रमाण है. 'कसिगाई वस्थकरलाई जो मिक्स् पडिग्गहिदि अप्पज्जदि मासिगं लहुगं' इति । सर्व प्रकारके वस्त्रकंबलोंको ग्रहण करनेसे मुनिको लधुमासिक नामक प्रायश्चित्त विधि करना पड़ता है.
इस प्रकार सूत्रोंमें वस्त्र ग्रहणका विधान है, इसलिये अचेलताका-लग्नताका आपका विवेचन कैसा योग्य माना जायगा.
इसपर आचार्य कहते हैं- आगममें आर्यिकाओंको वस्त्र धारण करने की आज्ञा है, और कारणकी अपेक्षासे भिक्षुओंको अर्थात् मुनिओं को वस्त्र धारण करनेकी आज्ञा है, जो साधु लज्जालु है, जिसके शरीरावयव अयोग्य है अर्थात् जिसके पुरुषलिंगपर चर्म नहीं है, जिसके अंड दी है, अथवा जो परीपइसहन करनेमें असमर्थ है वह वस्त्र ग्रहण करता है,
आचरागमें इस विषयमें एसा कहा है-"सुदं मे आउस्ततो भगवदा एवमक्खादं । इह खलु संयमामि महा दुविहा इत्थी पुरिसा जादा हति । तं जहा-सन्यसमपागदे जो सबसमामागदे चेव । तरथ जे सबसमगागदे थिसंगस्थिपाणिपादे सबिदियसमण्णागदे तस्स ण णो कप्पदि एगमाप बत्थं धारिऊ, एवं परिहिउँ एवं अणस्थ एगेण पडिलेहगेण इति" आयुष्मान् भगवान बीरस्वामीने ऐसा कहा है-इस जगतमें संयमको धारण करनेवाले
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