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मूलाराधना
आश्वास
स्त्री पुरुष दो प्रकारके हैं. संपूर्ण अवयवोंकी अवस्थाको प्राप्त हुए एम और असंपूर्ण ऐसे दो प्रकार है. जिनके गरी, हाथ और पाय मजबूत है, जिनके शरीरको अस्थिरचना मजबूत है. सर्व इंद्रियों में परिपूर्णता अर्थात निदों. पता है उनको एक भी वस्त्र धारण करना और पहरना अयोग्य है. मात्र उनको एक प्रतिलेखन अर्थन पिटिका धारण करना योग्य हैं.
कल्प नामक ग्रंथमें एसा कहा है- हरिहतुकं व होइ देहदगुंछंति देहे जुम्गिदगे धारेज्ज मियं वत्थं परीसहाणं च ण विहासीति ।। जिसका देह जुगुप्सायुक्त है अर्थात् जिसका पुरुद्रिय चर्मरहित है, अंडकोप दीर्घ है, जो परीपह सहने में असमर्थ है वह मुनि जनसमुदायमें एक इवेत वस्त्र धारण करें. कारणकी अपेक्षासे वस्त्र ग्रहण करना चाहिए इस विषय की पुष्टि करनेवाला और भी सून आचारांगमें है, 'अह पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमंतहि सुयडिवणे से अथ पडिजुयामुषधि पदिहावज्ज इति ' इसका अभिप्राय यह है-थंडीके दिनों में जिसको जाहा सहन होता नहीं है ऐसे मुनिको वस्त्र प्रहमा करके आये दिक सनात निपर और ग्रीष्मसमय आनेपर जीर्ण वस्त्र छोड देना चाहिये, कारण की अपेक्षा से वस्त्र धारण करनेका विधान है. जीर्ण बस्त्र का त्याग करनेका विधान आगममें हैं इसलिये रवस्त्रका त्याग नहीं करना चाहिये ऐसा आगमसे सिद्ध होता है ऐसा यदि कहोगे | तो वह अयोग्य है. अचेलता यह मूल गुण है ऐसा आचार्यका वचन है अतः वस्त्रका त्याग करना ही चाहिये. प्रक्षालन वगैरह संस्कार न होनेम वस्त्रमें जीर्णता आती है. परंतु दृववस्त्रका त्याग करना चाहिये एसा कथन करने के लिय जणि शब्द का प्रया। किंगा है. पात्रका मी संयमार्थ ग्रहण करना चाहिय क्योंकि मुत्रा में उसका भी विधान है एसा कहना अनुचित है.
अंचलता शब्दका अथ नवं परिग्रहोंका त्याम एसा होता है. पात्र भी परिग्रह है इसलिय उसका भी त्याग करना अवश्य सिद्ध होता है. अतः कारणकी अपेक्षासे वस्त्रपात्रका ग्रहण करना सिद्ध होना है. जो उपकरण कारणकी अपेक्षासे ग्रहण किया जाता है उसका त्याग भी अवश्य कहना चाहिये. इसलिये वस्त्र और पात्रका अर्थाधिकारकी अपेक्षासे सूत्रों में बहुत स्थानोंमें विधान आया है वह सब कारण की अपेक्षा से ही है ऐसा समझना चाहिय.
भावनामें इस विषयमें ऐसा उल्लेख है . परिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो जिणोत्ति ' अर्थात् महावीर
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