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वृलाराधना
आश्वास
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स्वामीने एक वर्ष तक वस्त्र धारण किया था. तदनंतर उन्होंने उसका त्याग किया था. गला भावना में उल्लख है. परंतु इसमें अनेक विवाद है. अर्थात् यह कहना निश्चययुक्त नहीं है. कोई इस विषय में ऐसा कहते हैं "जिस दिन महावीर स्वामीने दीक्षा धारण की उपी दिनमें महावीरस्वामी के शरीरपर जिसने सुगंध पदार्थीकी चची की थी उसने वह वस्त्र ग्रहण किया. छह महिने के बाद वह वस्त्र वृक्षके कांटोंसे और शाखाओंसे फट गया ऐसा कोई कहते हैं. एक वर्ष और कुछ दिन व्यतीत होने पर खडलक नामक ब्राह्मण ने यह ग्रहण किया था गेगा कोइ कहते हैं. इवासे जब वह वन जमीनपर गिर गया तब म्यामीने उसकी उपेक्षा की ऐसा कोई विद्वान कहते हैं. सुगंधी चर्चा करने वाले मनुष्यने भगवानके कंध पर वह वस्त्र रक्खा ऐसा कोई कहते हैं" इस तरह महावीर स्वामीका वस्त्र धारण अनिर्णीत है. सच्चेललिंगमें ऐसे अनेक संशय होनेसे उसमें कुछ तय नहीं दीखता है.
यदि भगबानने वस्त्रग्रहण किया था तो उन्होंने उसका क्यों नाश होने दिया. उनको वह सदा धारण करना योग्य था. यदि यह वस्त्र मेरा नष्ट होगा ऐसा प्रभूको ज्ञान था तो उसका क्यों उन्होंने ग्रहण किया ? यदि उनको यह मालूम न था तो उनका अज्ञान प्रगट होता है.
यदि भगवानने वस्त्र धारण कर वह भी मुनिका लिंग है ऐमा उचित किया है ऐसा कहोगे तो आचेलाको धम्मो पुरिमचरिमाणं' यह बचन मिथ्या होगा. अर्थात प्रथम तीर्थकर महावीर इन्होंने आचलक्य धर्मका उपदेश किया है, अर्थात् मुनिओंने संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग करना चाहिए यह मुनिधर्म है. एसा उन्होंने उपदेश किया है. यह उपदेश असत्य समझना होगा.
उसी तरह नवस्थान ग्रन्थम' यथाइमचली तथा होउ पच्छिमो इदि होक्खदिति । श्री आदि भगवानका "मैं जैसा निर्वस्त्र हूं वैसा पश्चिम तीर्थकर भी निवस्त्र ही होग" यह वचन भी मिश्मा मानना पडेगा.
जैसा महावीर स्वामीका वस्त्र त्यागकाल कहा है वैसा अन्य क्षेत्रीस तीर्थकरांका वस्त्रत्याग काल कपों न ही आपने दिखाया. यदि वस्त्र उनको भी होता तो ऐसा कहना युक्त होता है.
सर्व परिग्रहाका त्याग कर जिनश्वर जब ध्यान करते हैं उस समय यदि किसीने वस्त्र उनको पहनाया तो वह उपसर्ग कहलावेगा, शीत उष्ण, दंशमशक, तृणस्पर्श वगैरह परीपह सहन करना चाहिए ऐसा वर्णन परि