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बुलाराधन!
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वह सूत्रों में किया है. यह वर्णन अचेलताकी ही सिद्धि करेगा.
जो वस्त्र धारण करेगा उसको जाडेसे, दंशमशकादिसे दुःख होता नहीं.
इनसे अलवा काही निर्णय होता है. परिचत्तंसु बत्थेषु इत्यादि गाथाओंका अभिप्राय-- सुनि मनमें विचार करते हैं जब मैंने वस्त्रका त्याग किया है तो मैं फिर उसकी नहीं ग्रहण करूंगा जिसने वस्त्रका त्याग किया है वह सदा जिनरूपका धारक माना जाता है, जिसने वस्त्र धारण किया है वह सुखी होता है और वस्त्ररहित दुःखी होता है. इसलिये मैं वस्त्र धारण करूंगा ऐसा विचार भिक्षु मनमें न लावे. निर्वस्त्र होनेसे मेरेको शीतसे दुःख होता है. इसलिये मैं धूपका सेवन करूंगा ऐसी भावना भिक्षुकको मनमें नहीं करनी चाहिये. और शीतादि परीषहोको वह सहन करे. मेरे पास शीतनिवारण करनेवाला चख नहीं है. इसलिये में अग्रिका सेवन करूंगा ऐसा विचार भिक्षुकको नहीं करना चाहिये.
उत्तराध्ययनम ऐसा अभिप्राय लिखा है
जो आय धर्म में बड़ी पार्श्वनाथस्वामीने कहा है, परंतु एक प्रवृत्त हुए सुनिओंमें दो तरह की -- सचेल धर्म और अनेल धर्म ऐसी दो मनमें संशय उत्पन्न हुआ है. इस वचनसे भी चरमतीर्थकर महावीर स्वामी दशबैकालिक ग्रंथ में ऐसा वचन है-
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धर्म में ही अर्थात् मुनिधर्म में ही कल्पनायें उत्पन्न हुई है. अतः मेरे धर्म में अचेलता सिद्ध होती है.
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अभिप्राय - जो नग्न है, मुंड हॅ अर्थात् जो केशलोच करता है, जिसके नख केश दीर्घ है, जिसने मैथु नका त्याग किया है ऐसे साधुको अलंकार की क्या जरूरत है.
इस प्रकार अवलक्य कल्पका वर्णन हुआ.
उदेशिक स्थितिकल्पका वर्णन
मुनके उद्देश से किया हुआ आहार, वसतिका बगैरहको उदेशिक कहते हैं. उसके आधाकमोदि विकल्प से सोला प्रकार हैं उसका त्याग करना यह द्वितीय स्थितिकल्प है.
कल्पनामक ग्रंथ में इसका ऐसा वर्णन है-
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