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भापासा
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जिसने वस्त्रधारण किया है वह 'मुनि यदि अपनको निग्रंथ समझेगा तो पाखंही साधुओंको भी हम क्यों नदारापना
ननिय समझे? हम ही निग्रंथ है ऐसा उनका कहना केवल कहना ही है अर्थात् युक्तिशून्य है. मध्यस्थ EFIT लोक अर्थात् परीक्षक लोक उनका कहना मान्य नहीं करते हैं.
इस प्रकार वस्त्रम अनेक दोष हैं. नम्रतामें दोष तो है ही नहीं परंतु गणमात्र अपरिमित है. इसीलिये आचार्य महाराजने अचेलता स्थितिकल्प का प्रथम निरूपण किया है.
पूर्वागामें बस्त्रपात्रादिकोका ग्रहण करनका विधान मिलता है ऐसी जिनकी कल्पना है वे अपना पक्ष इस प्रकार स्थापन करना चाहते हैं.
यदि वस्त्र पात्रादिकोंका विधान नहीं है तो उसकी प्रतिलेखना निश्चय से करनेका विधान क्यों लिखा है ? आचारप्रणिधि नामक ग्रंथम "प्रतिलिनेन्पात्रकंबलं ध्रुवं" इति । पात्र और कंबलको शोधना चाहिये अथात् वे निर्जन्तुक है या जन्तुसहित है यह देखना चाहिये. यदि जन्तुसहित हो तो वे जन्तु. पिच्छिकामे दूर करने चाहिये. . आचारांगके लोकविषय नामक दुसरे अध्यायके पांचचे उद्देशमें ऐसा वचन है- “पडिलेहणं, पादपुछण, उग्गह, कडासणं, अण्णादरं उवधि पावज्ज अर्थात पिछी, रजोहरण, कटासन चटाइ, फलक, पादपीठ वगैरह तथा और भी दुसरा परिग्रह ग्रहण कर सकते है ऐसा उल्लेख किया है. बद्धेसमा नामक प्रकरण में इस मुजब विधान है. तत्थ एसे हिरिमणे संग वस्थं वा घारेज्ज पडिलेणगं विदियं । तत्थ एसे जुम्गिदे देस दुवे वत्थाणि घारिज पडिलेणगं वदियं ।। तत्थ एसे परीसह अणधिहासस्स तगो वत्थाणि धारेज पडिलेहणं चउत्थं । इसका सारांश यह है-यह लज्जायुक्त मुनि एक वस्त्र धारण करें और प्रतिलेखनके लिए इसरा वस्त्र अपनेपास रक्खें. यह मुनि योग्य प्रदेश में दोन वस्त्र धारण करे और प्रतिलेखनकेलिए तिसरा वस्त्र धारण करे, यदि शीतादि परीपह सहन न हो तो तनि वस्त्र धारण करें, और प्रतिलेखनकेलिए चोथा वस्त्र धारण करें
___ तथा पादेसणा प्रकरणमें ऐसा कहा है 'हिरिमणे वा जुग्गिदे चापि अण्ण वा तस्स ग कप्पदि वस्थादगं पादचारिसए' अर्थात् लज्जायुक्त साधुको वस्त्रादिक रखने चाहिये, जिसके लिंगमें दोष हो तो वस्त्र धारण करना योग्य है.