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________________ भलाराधना অাঘাত तनुभमायनुरागनिवारणद्वारेण लब सहायनान्मात्रयितुगाह ---- मूलारा- बन्धणे रज्जुशंग्वलादौ । ग रागी न प्रीतिः दुःखहेतुत्वात् । गाणिस्त सुखदुःखसावविवेकज्ञस्य । विससरिसेट दुखश्त्वात्प्राणप्रशियाच वडकल्पेषु । महमा विषपकारकतमत्वादतिभयं करे५ । यदि यस्यानु. पकारि तत्र तस्य न विवेकिन सहायबुद्धिर्यथा विपकंटकादि । अपकार च शरीरदक्षिणापिकमिति पुनः पुनरस्य पश्यती यतेरसहायोइ मिति चिंता का प्रवर्तके काम कालानु ता" अर्थ---रज्जु अथवा शंखलासे बद्ध हुआ पुरुष बंधनक्रिया करने में साधकतम ऐसी रज्जु-दोरी और लोह की सांखल में प्रेम नहीं करता है वसे सुखदुःख के साधनोंका विवेकज्ञान जिनको है ऐसे पुरुष शरीर में स्नेह नहीं रखते है. यह शरीर, निःसार, अस्थिर, अपवित्र है ऐसा समझकर वे इससे विरक्त होते है. क्योंकि वे | गुणोंके पक्षपाती हैं. ज्ञानी पुरुप विषके समान दुःखद ऐसे धनोंमें राग भाव नहीं रखते हैं. विषके सदृश धन दुःख दायक क्यों हैं इसका उत्तर ऐसा है-विष दुःख देता है और माषाका नाश करता है वैसे धन भी कमाना, रक्षण करना इत्यादि कायॉमें तत्पर पुरुष को दुःख उत्पन्न करता है-यह धन प्राणों का भी नाश करनेमें निमित्त है. इस धनके लिये प्राणी परस्पर घातपात करनेमें प्रवृच होते हैं. इस लिये यह महाभयका कारण है. जो जिसका नाश-अपाय करता है उसमें उसकी-अर्थात् विवेकी पुरुषकी सहायता बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है. विपकंटकादिकॉमें जैसे लोक ये मेरे उपकारक है ऐसा नहीं समझते हैं वैसे शरीर, धनादिक पदार्थ भी अपकारी हैं ऐसे विवेकी जन समझंत हैं. और बारबार इसी विषयका आभ्यास कर यति मैं असहाय हूं ऐसी चिता करते हैं. एकत्वानुप्रक्षाका वर्णन समाप्त. अन्यन्बभावननिरूपणार्थमुत्तर प्रबंधः ॥ एकत्त किहदा जीवो अपणो अण्णं सोयदि हु दुखियं णीयं ।। ण य बहुदुरखपुरक्कडमप्पाणं सोयदि अबुद्धी ।। १७.४॥ दुखव्याकुलितं रष्ट्या किमन्योऽन्येन शोच्यते ॥ किं नात्मा शोग्यसे जन्ममृत्यूवुःखपुरस्कृतः ॥ १८२३ ॥ विजयोदया-फिद्दा अपणो जीयो अण्णं भीग किरदात्तोयदिति पदघटना । भन्यो जीयो नीगं स्वस्मादन्य माम १५७८
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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