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मूलाराधना
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अलवण
मातुः परिणामस्तस्य संवरो निरोधः । वीतरागाणां केषांचिच्छुद्धोपयोगनिमित्ततया पुण्यासषपरिणाम सबरोपि प्रायः । संवेगो धर्मे श्रद्धा । अत्र संसारभीरताक्षणसंवेगकारणको धर्मोऽपि संवेशवेन ते । कारणे कार्योपचारातू । शिक्षकंपदा रत्नत्रये निश्चलत्वं । तबो स्वाध्यायाख्यं तपः । भावणा गुतितत्परता परदेसगतं परेषामुपदेशकर्तृ । ते स गुणा जिनवचनाभ्यासाज्जायते इति संबंध: ।
जिनवचन के अध्ययनसे कोनसे गुण प्राप्त होते हैं इसका वर्णन आचार्य संक्षेपसे करते हैं
अर्थ — आत्माके हितका ज्ञान जिनवचनसे होता हैं-लोक अहितकर इंद्रियसुखको हितकर समझते हैं. यह सुख दुःखका केवल प्रतीकार ही है, अल्पकालतक ही रहता है. तदनंतर उसका नाश होता है. इंद्रियां और पदार्थों के यह आधीन है. रागभावको उत्पन्न करके आत्माको कर्म बद्ध करता है. दुर्लभ है. दुर्गतीका भय उत्पन्न करता है. शरीरके आयाससे वह उत्पन्न होता है. अपवित्र शरीरके स्पर्शसे उत्पन्न होता है. ऐसे इंद्रियसुख में अज्ञ जीवको मुखबुद्धि हो रही हैं. संपूर्ण दुःखोंका नाश होनेसे उत्पन्न होनेवाला, आत्मामें हमेशा रहने वाला, निश्चल ऐसे आत्मसुखको अड़जन सुख समझते नहीं है. परंतु जिनवचन के अभ्याससे भव्यजीवोंको आत्मिक सुखका ज्ञान होता है, इसलिये जिनवचनमें आत्महितप्रतिज्ञा नामका गुण है यह सिद्ध हुबा,
भावसंबर - यह दूसरा गुण है. शंका भाव पदार्थका परिणमन-संवर-निरोध अर्थात् पदार्थो का परिणमन होना बंद पडना ऐसा भावसंवरका अर्थ होगा. परंतु यह अर्थ ठीक नहीं है. क्योंकि पदार्थने यदि परिणमन होना बंद होगा तो वह एक क्षणतक भी अपना अस्तित्व न रख सकेगा. अतः भावसंवर जिनवचनका गुण मानना योग्य नहीं है. उत्तर -- यह भावशब्दका अर्थ आपने जो किया है वह नहीं है. अशुभ कर्मका आसव जिनसे होता है ऐसे पापपरिणामोंका- विचारोंका त्याग करना यह भावसंवरका अर्थ यहां प्रस्तुत है। सरागी जीव अशुभ परिणामोंको जिनवचन के अध्ययनसे त्यागते हैं. अतः जिनवचनमें भावसंवर नामका गुण है ऐसा आचार्य कहते हैं. वीतराग अवस्थाको प्राप्त हुए मुनिओंको जिनवचन शुद्धोपयोंगके लिये कारण होता है. अतः वीतराग मुनीकी अपेक्षासे yourari लिये कारण जो परिणाम उनका संवर होना भावसंवर शब्दसे कहा जाता है,
जिनवचनका प्रतिदिन अभ्यास करनेसे नवनच संवेग नामक गुष्णका लाभ होता है, अर्थात् जिनधर्म में गाढ श्रद्धा
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