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नुलासचना
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मम्मानिदोपान । किगनात वाच्यारसद तपो नेति? कर्मनिर्जराहेनुन्वातिशयापनया सरक्षामन्यत्तपो नवाम्तीमा भिधाय । जरी नाम किमामारिकामा भवत् वा नक्षात्मपरिणामत्वं कय काचदाशयता अनारमपरिणामत्व न निजग कर्यात घटादिवादम्य पोयत -भानपरिणाम ण्य तपः कथं तर्हि बाधता ? बाह्याः सद्धर्ममार्गावे जनाः तैरष्यवगम्यन्यात थाहामिन्यख्यतः नदानादि । बापाचरत् सन्मार्गक्षा अभ्यंतराः । तदगम्पन्चात् घटादिवनेराचरितन्यादा वाहा भ्यंतरमिति मृगगभिप्रायः ।
संयोपानश्रुतम्रीव म्या यायाय तरः स्यादतस्तन्माहात्म्यमभिष्टौति
लारा-भंडाबाहिर अध्यंतराः सन्मार्गशास्तधिगम्यत्वात्तैरेवा चरितत्वादा प्राधान्यनान्तद्रच्याश्रितत्वाधा तपोऽभ्यन्तरनुच्यन । वायाः सन्मागेपहिभूताः तदवगम्यत्वात्तैरेवाचरितत्याहा प्राधान्येन बाहादल्याभितत्वाबा चाहा तपः । अध्यंतरं च बाय च अभ्यंतरबाये सद्द ताभ्यां वर्तमानं तपः सामान्यापेक्षया तथीतम । कुसलदिठे भवजापदिऐ । गा वि य । अब च शब्दात्रायासीन इति प्राधम । सज्झायममं कर्मनिर्जराहेतुत्वानि शबारश्या का प्रयेऽपि म्वा यायेगम्यं नान्यापी तात्यभिप्राय: ।। ध्यानस्य तस्मातुःकृष्टय:पि तत्पूर्वकस्वाहप्राधान्य) म शिक्षित ॥
जिनराकर शिक्षामा यः तय है गया आचार्य कहत हैं. अर्थ संसार श्रीर उन का बंध और उसके कारण, मोक्ष और उसके पाय इनकी जाननबार गा धगादक आन:र्य धारा प्रकारक. । और अभ्यंतर तपश्चरणों में स्वाध्याय नामका तप ही एसा है कि जिस चगवरी करनेवाला दमग तप पर्व कालमें हुआ नहीं और आगे न होगा व संप्रति वर्तमानकालम नहीं है। एमा निरूपण करते है, अर्थात नीनो काल में भी स्वाध्यायके समान दुसरा तप जगत में है ही नहीं.
गाधाम 'गल्भतम्याहिम्मि ऐमा समस्त दाद है, इसका अर्थ अभ्यंतर य बाह्य तपम युक्त तप गम' । होता है. यहां अभ्यंतर तप और चाय नप इन दोनों को छोडकर तिसरा नप है ही नहीं तो अभ्यंतर और वाय तपम युन, नप या अकरना अनुगिन है ? इस शंकाका उत्तर-तपरुष सामान्य बा! और अभ्यंतर नार विशेषांम युक्त होनस · मभतरवाहिम्मि ' यह नपका विशेषण योग्य है.
शंका-स्वाध्याय भी नप है और अनशनादिक भी तप ही है दोनाम भी कर्मको सतप्त करनका मामथ्य है अतः स्वाध्यापक समान अन्य तप नहीं है यह कहना क्या उचित है ? उत्तर-स्वाध्याय तप करनेसे
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