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________________ मुलारापना| २५५ जितनी कम निर्जग होनी है उतनी अन्य तप करनेसे होती नहीं है अतः अन्य तप इसक समान नहीं है एसा कहना क्या अयोग्य है ? शंका-तप यह आत्माका परिणाम है या नहीं ? यदि तप आत्मपरिणाम रूप है तो कुछ तप अभ्यंतर है और कुछ तप बाह्य है एम भेद मानना अयोग्य है, यदि उनको आरमपरिणामात्मकता नहीं है तो बे परादिकके समान वायही मानने चाहिये कि मग तप ? रनर-नप यह 'भान्मा का परिणाम है तो तपको बाह्यपना किम गतम समझ । सद्धर्म माग आ जन अलग ही अचान जनधर्म धारण न करनवाल ऐमे मियाची लोकीको बाहर कहते है । जो न करने का नाम अथात् अनशन अवमोदय मेरह पका चार नप रहन है. अयना बाद गृहस्थ रनक द्वारा जिनका आनरण किया जाता है ऐसे अनशनादि नपको बाध कहत है. मन्भाग मुक्तिमार्ग-रत्नत्रय इसको जाननवाल मुनि जिसका आनरण करते हैं ऐसे तप 'अभ्यंतर तप' इस शब्दसे कहे जांत है. एसा आचार्यका अभिप्राय हैं. पनिशामात्रेण स्वाश्यायस्यान्यनगेभ्योऽतिशयितता न सिसयतीति मन्यमानं पति अतिशयसाधनायाह जं अपाणी कम खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं ॥ तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहुत्तेण ॥ १०८ ॥ उदभरतमदुबालसहि अण्णाणियस्स जा रोही ।। नत्ता बहुगुणदग्यिा होज्ज हु जिमिदस्म णाणिस्स || १.०५ ॥ थहाभिर्भवकोटोभिर्यदज्ञानेन हन्यते । इति ज्ञानी बिभिर्गुप्तस्तत्कर्मान्तर्मुहूर्ततः ॥ १०९ ।। षष्ठाष्टमादिभिः शुद्धिरज्ञानस्यास्ति योगिनः ।। ज्ञानिनो बल्ममानस्य मोक्ता पहुगुणा ततः ॥ ११ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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