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मूलाराधना
आश्वास
विजयोक्या-जं यत् । अण्णाणी सम्यवानरर्वताप कम्मं कर्म । स्रषेदि क्षपयति । भवसदसहस्सकोडीहिं भवशससहनकोटिभिः। तत् कर्म.। पाणी : समबहानमा निहि.गुसो विगुप्तियुक्तः । खषेवि वपरति 1 अंतोमुहुरोण अन्तर्मुहर्तमात्रेण । अटिति कर्मशातनसामर्थं तपसोऽन्यस्य न विद्यते इत्ययमतिशयः स्वाध्यायस्य ॥
अर्थवादमात्रमेतद्भविष्यतीति परो मा मेस्तेति झटिति कर्मशातनशक्तिलक्षणततिशयममर्थनार्थमिदमाहमूलारा- अण्णाणी सम्यग्ज्ञानरहितः ।। अनशनमाप्रतपोवद्धानहस्य प्रयोधनाय सत्तोऽतिशयितां शक्ति नाभ्यःया प्रमया याद . .
मूलारा देत्यांव-ष्ट वायुपवासी, अष्टम त्रयो, दशनं चत्वारों द्वारा पंच उपलक्षापात्यनायव मादयोऽपि । बहुगुणदरिया बहुगुगतरा। होज भयेगा जिमिहरूम भोजनं कुर्वतः ! गाणिम्ग स्वारिंगानग्य । इमा गय टीकाको न भन्यो । पूर्वगाथोतातिरिक्तस्यार्थरय अनयानभिधानात् ॥
केवल प्रतिज्ञा स्वाध्यायकी अन्य तपसे विशिष्टता सिद्ध नहीं होती है । म समझनेवालोंके लिय आचार्य बाध्याय तपकी महाना हिरवाते हैं
अर्थ-सम्यग्ज्ञानन रहिर जीव लक्षावधि कोटि भयोमे जितने कमाकर य करन में गाय होता है वानी जीव तीन गुनियोस युक्त होकर अन्तर्मुहूर्त मात्र कालमें सीन उनन कमाका श्रय करता है. अभिप्राय यह है कि, स्वाध्याय तपको छोडकर अन्य तपमें शीघ्र कर्मका नाश करनेका मामथ्र्य नहीं है. यह बाध्याय नपका अतिशय है. दो, तीन, चार, पांच उपवाससे पक्षोपवास, मासोपवास वगैरह उपवास करनेवाले समज्ञानरहित मिथ्याष्टिकी अपेक्षा भोजन करनेवाला, स्वाध्याय तपमें तत्पर ऐसा सम्यन्दष्टि परिणामोंकी जादा विशुद्धि कर लेता है. तात्पर्य यह है कि, सम्यग्दृष्टि जीवको सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञानका भी साहाय्य मिलनेसे वह यद्यपि थोडासा तपश्चरण करता है तो भी विषयवासनासे रहित होनेसे अपने आत्माको उत्तरोत्तर अधिकाधिक निर्मल परिणामोंसे विशुद्ध करता है. उसका कर्म उत्तरोत्तर असंख्येय गुणित पद्धतीसे निर्जीर्ण होता है. और उसको बंध कम २ होता जाता है. परंतु मिथ्याष्टिजीव विपश्वासनाके वश होकर तप करता है. श्रद्धा व मम्यरज्ञानके आधारपर उसका तप अधिष्ठित नहीं है अतः उसका आत्मा सम्यन्दष्टीक समान विशुद्ध नहीं होता है.
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