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________________ मूलाराधना आश्वासः । २५७ यम मHिEMAMAT __स्वाध्याये उद्यतो गुप्तिभावनायां प्रवृत्तो भवति तत्र च वृत्तस्य रत्नत्रयाराधनं सुखेन भवति इत्युत्तरगाथया कथयति सज्झायभाषणाए य भाविदा होंति सब्बगुत्तीओ ॥ गुत्तीहिं भाविदाहिं मरणे आराधओ होदि ॥ ११ ॥ स्वाध्यायेम यतः सर्वा भाविताः सन्ति गुप्तयः ।। भवत्याराधना मृत्यौ गुप्तीनां भावने सति ।। १११ ।। विजयोन्या-मनोचाकायच्यापाराः कर्मादानहेतवः सर्व एव व्यावतते स्वाध्याय सति, सतो भाविता भवन्ति गुसया । मृताभिमताधियोग–यनिरोधश्च रस्नत्रय एप घरने पति सुखसाध्यता । अनंतकालाभ्यस्ताशुभयोगत्रयस्य कर्मोदयसहायव्यावर्तनमतिदुष्करं स्वाध्यायभावनव क्षमा कर्तुमिति भावः । सज्झायभायणारय स्वाध्यायभावनया था । भाविदा भाविताः । होति भवन्ति । सब्बगुस्सीओ सर्पगुप्तयः । गुत्तीदि गुप्तिभिः । मायिदाहिं भाषिताभिः । मरणे मरणकाले । आराधगो रत्नत्रयपरिणामाराधनपरः । होदि भवति || स्वाध्यायभावनां विना अनादिकालाभ्यस्तमशुभयोगचं कर्मोदयसहायमन्येन केनापि ध्यावर्तयितुं न शक्यते इत्युपदेदुगाचष्टे-- मूलारा-आराधओ रत्नत्रयाराभवापरः। म्याध्यायमें तत्पर मुनि गुप्ति भावना में प्रवृत्ति करता है. जब गुप्तिमें वह तत्पर होता है नय उसुको रत्नअयकी आराधना मुखसे होती है. यही अभिप्राय आगे की गाथा कहती है अर्थ-स्वाध्याय करनसे क्रमको ग्रहण करने वाली मन वचन और शरीरकी सर्व पत्तियां बंद होजाती हैं. इन बंद होनस गुप्तियोंका अभ्यास मुनि कर सकते हैं. शरीरादिकके द्वारा स्वयं कार्य करना, दसके द्वारा कराना और स्वयं कार्य करने वाले को सम्मतिप्रदान करना इन तीन योगोंका निरोध रत्नत्रयकी प्राप्तिसे होजाता है. यह रत्नत्रय स्वाध्यायस मुनि स्वतःमें प्रगट करते हैं. मन वचन शरीरकी प्रवृत्तियां अर्थात तीन प्रकारके अशभ योग और उनको मिलनवाला कर्मका सहाय्य ये सब स्वाध्यायके वलसे नष्ट होते हैं. अभिप्राय यह है कि, स्वाध्याय में सर्व मुप्तियां मिल जाती है. गुप्तियां प्राप्त होनेसे मरणकालमें आत्मा रत्नत्रयका आराधक होता है, aanasama २५७ 1+sti
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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