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भूलाराधना
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आधाम:
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शब्दादिक विपयोंके आधीन जो नहीं रहता है वह शब्दादिकोंका जेता कहाजाता है. जैसे जो स्त्री पुरूपके वश नहीं रहती है उसको इसने पुरुषको जीता है ऐसा लोक कहते हैं. अर्थात् शब्दादिक कषायोंके स्वाधीन हे क्षपक ! तुम कदापि न रहोगे तो तुम इन्द्रियजयी कहलायोगे ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है. एवं कृतेवियकषायजयेन मया पश्चातिककर्तव्यमित्यत्रोसरमाचरे--
हंतूण कसाए इंदियाणि सव्वं च गारवं हंता ।। तो मलिदरागदोसो करेहि आलोयणासुद्धिं ॥ ५२४ ॥ रागद्वेषकषायाक्षसंज्ञाभिगौरवादिकम् ॥
विहायालोचनां शुद्धां त्वं विधेहि विशुद्धधीः ।।५४४ ॥ विजयोदया-हंतूण हत्वा । कसाए कपायान् । दियाणि इंद्रियाणि च हन्या । सर्वच गार हता सर्व न गारवं हत्वा ऋद्धिरससानभेदात्त्रिविकरूपं । तो पश्चात् । मलिदरागदोसो मृवितरागद्वषः । करेहि कुरु । भालोयणामुद्धि टोसपास. i ग
चनस्य हेतू रति परित्याज्याविति कथिती ।। रागान पश्यति नगे मोवान् । पा. द्गुणाय गृहीते ॥ तस्मादागद्वेषी न्युदस्य कार्याणि कार्याणि ॥
भिद्रियजयं कृत्वा पश्वारिक कुर्यामहमित्यत्राह --
मूलारा- इता हत्वा । मलिद मर्विती । आलोवणासुद्धिं आलोचनाख्यां शुद्धिं । गगद्वेषावसत्यवचनम्य हेतू इति परित्याज्यौ । उक्तं च-रागान पश्यतीति किमिति परस्मै स्वच्ययाकल्प निवेदयति । निधो भवता मुमुक्षुगा न कागो यतः ॥
इंद्रियजय और कायजय करनेके अनंतर मेरा क्या क्या कर्तव्य है इस प्रश्नका उत्तर देते हैं
अर्थ -क्रोधादिकषाय और स्पर्शनादिक इंद्रियोंको जीत कर ऋद्धिगारव, रसमारब और सातगारव ऐसे तीन गारबोंको हे क्षपक तुम जीतो. तदनंतर सगोषोंका मर्दन कर आलोचनारूप शुद्धि करो. रागभाव और द्वेषभाव असत्य वचनके कारण है इसलिये उनका त्याग करना चाहिये. रागभावसे मनुष्य दोषको देखता नहीं और द्वेपसे सद्गुणों को ग्रहण नहीं करता है. इसलिये रागद्वेषोंका त्याग कर कार्य करने चाहिये.
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