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________________ मूलाराधना ग्रहण किया जावेगा ऐसा विचार करत भी लिया जी पारण सरंच निपुणती. अर्थात वे मधुरवचन चोलकर, रतिक्रीडामें अनुकूलता दिखाकर पुरुषका द्रव्य हरण करने में उद्युक्त रहती हैं. अपने कार्यमें हमेशा तत्पर रहती है. - रोगो दारिदं वा जरा व ण उवेइ जार परिसस्स ॥ ताब पिओ होदि णरो कुलपुत्तीए बि महिलाए ॥ ९५५ ॥ दारि विससा व्याधि यावामोति मानवः॥ जायतेसावदेवास्याः कुलपुत्र्या अपि प्रियः ।। ९७२॥ विजयोन्या-रोगो वारिई वा व्याधिदारिश्च चा जरा या । ण उपेदिन ढोकते यावत्पुरुष । ताप पिलो होनि जरो तापत्तियो भवति नरः। कुलपुतीर विकुलपुज्या भपि । महिलाए कांतायरः । कुळपुषीषु धाम्यः किमस्ति साभ्यो हि प्रायेण कुलपुथः पतिमेध यति मन्यमानाः प्रियं सजतीति ।। मूलाराण उवेदि नायाति । अर्थ-रोग, दारिध, अथवा वृद्धावस्था जस्तक पुरुषको प्राप्त होती नहीं तबतक खीको अपमा पति प्रिय होता है. जब उसका शरीर रोगसे पीड़ित होता है, वृद्धावस्था उसके शरीरको जर्जर करती है तब वह स्त्रीको | अप्रिय होता है. साधारण स्त्रियोंको हो दारियादि अवस्था में यह अप्रिय मालूम होता है ऐसा नहीं. किंतु जो पति को देयतुल्य समझती हैं ऐसी कुलीन स्त्रिया भी पतीको अप्रिय समझ कर त्याग करती हैं. जुण्णो व दरिदो वा रोगी सो चेत्र होइ से वेसो || णिप्पीलिओव्व उच्छृ मालाब मिलाय गदगंधा ॥ ९५६ । प्रसूनमिव निर्ग, द्वेष्यो भवति निर्धनः । मलानमालेच वर्षिष्ठो रोगीक्षरिव नीरसः ।। २७३ ॥ . विजयोदया-जुष्णो वृद्धो वा । दरिहो दरिद्रः । रोगिदो व्याधित्तः । सो चेव स एष युवत्वे धनित्वे नीरोगस्य घायः मियः स एव होदि भवति । से तस्या।। वेसो देष्यः । णिप्पीलिदोव्व निष्पीडित इव उच्छू इक्षुः।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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