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मूलाराधना
मायाः
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करता हूं ऐसा वचनोच्चार करना यह बचनकृत कायोत्सर्ग है. बाहु नीचे छोडकर चार अंगुलमात्र अंतर दोनों पायों में रखकर निश्चल खडे होना यह शरीरके द्वारा कायोत्सर्ग है.
(कायापायनिरासमकृत्वा इस पदका अर्थ ध्यानमें आता नहीं ) एकान्तस्थान में गुरु प्रसन्न चित्तसे बैठे हैं ऐसा देखकर उनके पास मंदरीतीसे आकर अपना शरीर और जमीन पिच्छिकासे साफ करना नाहिये. तदनंतर गुरूसे दर अथवा निकटन बैठकर अर्थात गुरूसे थोडे अंतर पर बैठकर हाथ जोडने चाहिये.' हे भगवन कृतिकर्मवंदना करनेकी मेरी इच्छा है। ऐसा कहकर आलोचना करनी चाहिये, उनकी अनुना मिलने पर सावकाश उठकर मस्तकपर हाथ जोडकर रखने चाहिये. और सामायिकका पाठ पढना चाहिये. पाठ पढते समय शीघ्रता और सावकाशपना छोडकर मध्यम प्रकारसे सामायिक्रपाठ पढना चाहिये.
सूत्र के अनुसार दोषोंका त्याग कर निश्चल खटे होकर कायोत्सग करना चाहिये, तदनंतर चतुर्विशति स्तुतिपर गुरुवार सुमति पटही चाहिये. इसीको ऋतिकर्मवदना कहते हैं
तुजोत्थ बारसंगसुदपारया सवणसंघणिज्जवया ॥ तुझं खु पादमूले सामण्णं उज्जवेज्जामि ॥ ५१० ॥ निर्यापर्क महासूरि स्मृत्याध्यानपरायणम् ।। क्षपको नाइनुते सौख्यं विवेकमिव शाश्वतम् ॥ ५२८ ॥ तीर्णश्रतपयोधीनां समाधानविधायिनाम् ।।
युष्माकमीश पाति द्योतयिष्यामि संयमम् ॥ ५२९ ।। विजयोदया-तुक्षेत्थ यूयमय । बारसंगसुदपारगा शादश आचारादीनि अंगानि यस्य तत् द्वादशांग थुतं सागर व तस्य पारं गताः । समणसंघणिजबगर भ्राम्यति तपस्यंति इति श्रमणाः तेषां समुदायः श्रमणसंघः तस्थ निर्यापकाः । तुझं खु पावमूले युष्माकं पावमूले उज्जयेज्जामि उपोतयिष्यामि । सामणं श्रामण्यं ।।
विनयपूर्वकं क्षपकः करणीयकं प्रतिजानीतेमूलारा-इत्थ अन्न देशे णिज्जवया समाधिसंघधारकाः, उज्जवेज्जामि संपूर्ण करोमि ||