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________________ - मूलाराधना भाश्वास बंदना अस निनयनाथ मोहनापनाको गारो कहे हुए सूत्रों के अनुसार बोलता है अर्थ- हे आचार्य ! आपने द्वादशांग श्रुतज्ञानरूपी समुद्रका दूसरा किनारा प्राप्त किया है. आप तपश्चरण करनेवाले मुनिको समाधिमरण की प्राप्ति करानेवाले हैं, आपके चरणोंका आश्रय लेकर मैं मेरा श्रामण्य-मुनिवत उज्ज्वल करना चाहता हूं. अर्थात मर यता आजतक जो दोष लगे हुए हैं उनका प्रायश्चित्त लंकर व्रतोंको उज्ज्वल करना चाहता हूं. आत्मेच्छां सूरये प्रकटयति पव्वज्जादी सर्व कादूणालोयणं सुपरिसुई । दसणणाणचरित्ते णिस्सल्लो विहरिदु इच्छे ॥ ५११ ॥ दीक्षाभूति निःशेष विधायालोचनामहम् || पिजिशीर्षामि निःशल्यश्चतुरंगे निराकुलः ।। ५३० ।। विजयोदया-पत्यजादी सच्चे दीक्षाग्रहणादिकां सां । कादृणालोयणं कृत्वालोचना सुपरिसुद्धं दोपहितां । दसणाणाणचरिते दर्शनमानचरित्रे णिस्तल्लो शल्परहितो भूत्वा । बिहरिनु घिद आचरितु । इच्छ इच्छामि ॥ आत्मेच्छां अपकः सूरेः प्रकाशयतिमूलारा-पञ्चजादी वीक्षाग्रहणात्मभृति णिस्सलो अतीचारप्रिषातो भूत्वा । विहरिर्दु आचरितुं । इच्छे इच्छामि। क्षपक अपनी इच्छा आचार्यको कहता है अर्थ--दीक्षाग्रहणकालसे आजतक जो जो व्रतादिकोंमें दोष उत्पन्न हुए हैं उनकी मैं आकंपित, अनुमानित वगैरे दशदोषोसे रहित आलोचना कर दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें निःशुल्य होकर प्रवृत्ति करने की इच्छा करता हूँ. एवं कदे णिसग्गे तेण सुविहिदेण वायओ भणइ ।। अणगार उत्तम साधेहि तुम अविग्घेण ॥ ५१२ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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