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मूलाराधना
-आश्वास
अर्थात् इस अमूल्य व्रतका नाश करनेमें मैं कैसा उद्युक्त होऊं, यह मेरा वतनाशकार्य दुःखदायक संसारमें पतनका कारण होगा. ऐसा विचार मनमें आनेते उन पार्श्वस्थादिकोंके विषय में उसको जुगुप्सा उत्पन्न होती है. नंतर चारित्र मोहकर्मका उदय होनेसे वह परवश होकर व्रतमं । कर लिये का होता है. यानंग कर यह मुनि आरंभ परिग्रहादिकोंमें निःशंक होता है, यद्यपि वह मुनि पार्श्वस्थादिकके सहवासके. पूर्वमें धर्मप्रिय था तो भी कमसे लज्जा, जुतुणा बगरह मायाँको प्राप्त होकर पार्श्वस्थादिरूप हो जाता है. यद्यपि वा शरीरग और वचन पाधम्थादिरूप नहीं है, ता भी मनम वैसा हो जाता है,
पदापि वाकायाभ्यो न प्रयतते नथापि मानी पार्श्वस्थादिता प्रतिपात रत्यावर -
सबिग्गरसवि संसग्गीए पीढ़ी तदो य वीसंभो ।। सदि वीसंभे य रदी होइ रदीए वि तम्मयदा ॥ ३४१ ।। तेषु संसर्गतः प्रीतिविनम्नः परमस्ततः ।।
ततो रतिस्ततो व्यक्तं संविनोऽप्यस्ति तन्मयः।। ३४५ ।। विजयोन्या-सबिग्गस्स यि संसारभीरोरपि यतः संसगीण पाचस्थ दिससंगण । पांदी हीदि प्रीतिनानि । सदो य प्रीतेः सकाशात् । वीसंभो होदि विनमो भवति । सविधीसभे य रदी विभ पनि तिर्भवति । पार्श्वस्थादिषु रदीप वि तम्मपदा रत्या च तन्मयता॥
यद्यपि तत्संगत्या वाशाचाभ्यां न तदाचारे प्रयतते तथापि मानर्स पाश्र्यास्यादिरूपता प्रतिपद्यते इत्याचष्टगृलारा संसगीए पार्वस्थादिसंसर्गेण । बालभो विश्वासः । रदी पात्रस्थाविपु संसर्गण चिनविश्रान्तिः यही आशय आगे की गाथामें आचार्य कहते हैं -
अर्थ संसारभययुक्त मुनि भी पावस्थादिकोंके सहवाससे प्रथम प्रीतियुक्त होता है, प्रतिके अनंतर उस विएवमें मनमें विश्वास होता है. अनंतर उन्होंमें चित्त विश्रांति लेता है अर्थात आसक्त होता है और तदनंतर यह संसार भीर मुनि भी पार्श्वस्थादिमय बनता है,