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मूलागवना
आश्वासा
संसर्गवशाद गुणदोगी भवतोऽचननेप्यपीति मातेन बोधयनि
जइ भाषिजइ गंधेण महिया मुरभिणा व इदरेण ।। किद्द जोएण ण होजो परगुणपरिभात्रिओ पुरिसो ॥ ३४२ ॥ नानाशभन गंधेन मृत्तिका यदि वास्यते ।।
तदा नान्यगुपीरत्र कथ्यतां पुरुषः कथम् ।। ३३७ ।। विजयोदया-जदि यदि । भाविद भाव्यते चास्यते । गधेण गंधेन प्रष्टिया मृत्तिका । सुरहिणा व इयरेण सुगभिणा च इतर वा। वह जोगणा होजो कर्ण संबंधेन न भवेत् । परगणपरिभाष गो परिमो परेपगं पार्श्वस्थादीनां गणे: परिभावितः पुरुषः ॥
संसर्गवशागदोपावचेतनावपि स्यानां किं पुनश्चेतनेविति दृष्टान्तावष्टंभे नावष्टे --
मूलारा-मात्रेदि वायत्त । जोगण संबंधेन। परगुणपरिभाविदो परेषां शिष्टानां गुण: शुभाशुभमैंः ममन्ताद्वासितः ।।
संसर्गस अचेतनपदार्थ में मी गुण और दोष उत्पन्न हो जाते हैं यही बात दृष्टांतसे स्पष्ट करते हैं
अर्थ--यदि सुंगध अथवा दगंधक सहवाससे मत्तिकाभी सुगंध अथवा दुगध बनती है तो पावस्थादि. कोंका संयोग होने पर मुनि उनके गुणोंसे क्यों न तन्मय होगा? अर्थात् होगा ही. अथवा परपदार्थ यदि मुगुण होगा तो उनमे संयुक्त होने वाला पदार्थ भी मद् गुण संपन्न होगा और परपदार्थ यदि दुर्गुण अर्थात् दोपयुक्त होगा ना घर भी दापनि पूर्ण माटी.
परगुणग्रहरामाद
* जो जारिसीय मेत्ती केरइ सो होइ तारिलो चत्र ||
वासिज्जइ कछुरिया सा रिया वि कणयादिसंगेण 11 ५४३॥
* मूलाराधना दर्पण में यह गाधा तथा उसकी टीका नहीं है तथा अमितगति प्रणीत भोक भी नहीं है.