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मूलाराधना
आश्वासः
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विजयोदया- दृष्टांतत्वेनोपन्यस्ता मृत्तिका टुरिका च । तथा चोक्तं सुरभिणा व स्वरेण जारिसीति च ॥ परगुणग्रहण यह पदार्थ का स्वभाव है ऐसा वर्णन
अर्थ- ऊपर मट्टीका उदाहरण दिया है. इस श्लोकमें छुरीका उदाहरण आचार्य देते हैं. जैसे छुरी सुवर्णादिक की जिल्हई देनेमे सुवादि म्यापकी दरिखती है वैसे मनुष्य भी जिसकी मित्रता करेगा वैसा होगा अर्थात् | मनुष्य दुष्टके महवासस दुर और सज्जनसंगये मत्पुरुष होता है.
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दुजणसंसग्गीए पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि ॥ सीयलभावं उदयं जह पजदि अग्गिजोएण ॥ ३४४ ॥ शिष्टोऽपि दुष्टसंगेन विजहाति निज गुणं ।।
नीरं किं नाग्नियोगेन शीतलत्वं विमुंचति ।। ३४७॥ विजयादया-दुजर्ससम्गीर दुष्टजनसंसर्गेण । पाइदिणियगं गुर्ण खु सुजणो वि । चिजहाति स्वगुणं सुज. नोऽपि । सायम्माय जहा उदवं पत्रहदि दोस्वं भावं यथा जहान्युदकं । अग्गिजोपमा अग्निसंबंधेन | साधुः स्वगुषों जहात्यनलसंवद्ध जलमिति सहजगुणरयाग हटांतः ॥
बुनमायागं गाशाकेजो परेलु कामो दुर्जनसंगर्गासुजनभ्यापि सहजगुरुत्या दातन समर्थयतेमूल्दारा स्प५
अर्थ-सज्जन मनुष्य भी दुर्जनके संगसे अपना उज्ज्वल गुण छोड देता है. अग्नीके सहवासमे ठंडा भी जल अपना ठंडपना छोड कर क्या गरम नहीं होता? यह सहजगुणके त्यागका दृष्टांत है, अर्थात अग्निके सहवाससे शीतस्त्रमाव का जल भी अपना म्बभाव छोडकर गरम होता है. वैसे सज्जन अपने जन्मजात निर्मल गुणोंको छोडकर दुर्जनके सहवाससे दुष्ट बनता है, अशोभनगुणेन संसर्गात् नहा स्वयमप्यशोभनगुणों भवतीति कथयति
सुजणो वि होइ लहओ दुजणसंमेलणाए दोसेण ॥ माला वि मोल्लगरुया होदि लहू मडयसंसिट्ठा ॥ ५१५ ।।