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________________ मूलाराधना आश्वासा संसक्तो मृगचरितः स्वकल्पिते प्रकटकुचरितन्तु कुशीलः ।। अर्थ-पार्श्वस्थ, अबसन्म, संसक्त, कुशील, मृगचारित्र ऐम पांच चारित्रभ्रट मुनिओंका आप दूरमे ही स्था कर, पर उनका मन करोगे तो उस संसर्गदोपसे आप भी उनके मयि हो जाओगे. ये पाचस्थादि मुनि प्रच्छन्न मिथ्यादृष्टि है. पार्श्वस्थादिसंसर्ग कर्तुं यांच्छन्नपि लज्ज तदो विहिंसं पारंभ णिब्विसंकदं चेव ॥ पियधम्मो वि कमेणारुहंतओ तम्मओ होइ ॥ १४ ॥ लज्जां जुगुप्सनं योगी प्रारम्भ निर्विशंकताम् । आरोहन्प्रियधर्मापि क्रमणेत्यस्ति तन्मयः ।। ७४४ ।। बिजयोवया--लज्जं लग्जर्जा उपारोद्दति । ततः पश्चाद्विहिसं असंयमजुगुप्सा फरोति । कथमहमवविध बतभंग करोमि । दुरंतसंसारपतनइंतुमिति । पश्चाचारिश्रमोहोव्यात्परवशः पारंभ प्रारभते । शतप्रारंभो यतिरारंभपरिग्रहादिषु निविसंकद चेव निर्षिशंकतामुपैति । पियधम्मोवि धर्मनियोऽपि । कमेणारहतगो क्रमेण प्रतिपद्यमानो लस्जादिकं तम्मको होदि पार्श्वस्थादिरूपो भवति ॥ तन्मयताप्रतिपत्तिकमाख्यानार्थमाह मूलारा-लक्षमित्यादि । धर्मप्रियोऽपि लज्जादीन क्रमेयारोहपावस्थादिरूपो भवति । तथा हि पार्वम्यादि. संसर्ग कर्तु वासनि लज्जामारोहति ततः पश्चादिहिसं असंयगजुगुप्ता प्रतिपक्ष । नगद गाय वगभग कगि दुरन. संसारपतनहेतुमिति । तनु चारित्रमोहोदयात्परवक्षनं प्रारभते । ततश्चारंभपरिभहारिक निर्विशंकनामपनि । तनय पादयस्था दिरूपो भवति || उनके संसर्ग करनेसे तन्मयता कैसी आती है इसका क्रम वर्णन आचार्य दिखाते हैंअर्थ--प्रथमतः पार्श्वस्थादिक मुनिओंके साथ संसर्ग रखनेमें लज्जा आ जाती है. अनंतर जुगुप्सा होती है ५५०
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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