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पलाराधना
आश्वा
यहां शंका जो आत्महित जानता है उसकी हितमें प्रवृत्ति होती है यह कहना योग्य है परंतु जो अहिन के स्वरूपको जानता ही नहीं है तो वह उससे कैसे परावृत्त हो सकेगा. जो अहितज्ञ है वही उससे परामृत्त होगा. हित और अहित ये दोनो ची मिट है जो भित्रि ३ दि जाना जायगा तो उसमे भिन्न अन्य भी फैंसा जाना जावंगा जैसे वानरका ज्ञान होनेसे मगरका ज्ञान नहीं होता है, वैसे हितसे अहित भिन्न है. अनः हितको जाननेयाला अहितको न जाननेसे अहितसे कैसे परावृत्त होगा?
उत्तर-सर्व ही वस्तु स्वभावसे उत्पन्न होती है और परभावसे अनुत्पन्न मानी जाती है. अर्थात् स्वस्वरूप की अपेक्षासे प्रत्येक वस्तु भावात्मक है. वही वस्तु परकी अपेक्षासे अभावात्मक भी है. जैसे बड़ा पेट, शंखाकृति गला इत्यादि स्वस्वरूपसे घट पदार्थ जाना जाता है. यदि वह घट परस्वरूपसे भी जाना जायगा तो वह जानना 'विषरीतज्ञान' है. अतः घटको जाननेके समयमें ही घट पट नहीं है ऐसा भी ज्ञान होता है. हितको जानते समयमें ही अहित भी हिससे उलटा है यह जाना जाता है. यदि हितके विलक्षणरूप अहितको न जाना जायगा तो हितका ज्ञान नहीं होगा. इसलिये हितज्ञ जीव अहितको भी जानता है ऐसा समझना चाहिये अतः वह आहितसे परावृत्त होता है.
सम्झायं कुवंतो पंचिदियसुबुडो तिगुत्तो य ॥ हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू ॥ १० ॥ स्वाध्यायं पञ्चशः कुर्व स्त्रिगुप्तः पंचसंघृतः॥
एकाग्रो जायते योगी विनयेन समाहितः॥ १०५ ॥ विजयोदया-मुज्झाय स्वाध्याय पंचविधं वाचनाप्रश्नानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशभेदन । तत्र निरवार ग्रंथस्य ध्यायनं तदर्धाभिधानपुरोगं वाचना । संनिवृत्तये निश्चितबलाधानाय वा सूत्राविषयः प्रश्नः । अवगतार्थानुप्रेक्षणं अनुप्रेक्षा । आम्नायो गुणना । आक्षेपपी, विक्षपणी. संवेजनी, निवेदनौति चतस्रः कथास्तासां कथन, धर्मापदेशः । तं स्वाध्याय कुर्यन पिचिंदिय सत्रुडा होदि पंचद्रियसंवृतो भवति । ननु निष्ठांतस्य पूर्वनिपातासंवृतपंचेंद्रिय' इति भवितव्यम् ? सत्यं । जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम्' इत्यनेन पंचेंद्रियजातिसिरिति जातिवचनः । ततो निष्टांतः परत:प्रयुज्यते इति मन्यते । इंद्रियमनेकमकारं द्रव्येद्रियं भावेन्द्रियं इति इद तु रूपाएपयोगाद्रियानोच्यते। तेनायमर्थ स्वाध्या
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