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मुलाराधना १५३७
स्यार्श्वकायामाह - साधू चैव हि संघो साधत्र एव हि संघः । ण द्वि संघो साधुयदिरितो नैव संघो नामार्थान्तरभूतोऽस्ति साधुव्यतिरिक्तः । कथं चित्समुदायावयवयोरव्यतिरेक इति मन्यते गाथाइयेनानेन । अव्युच्छित्तिर्व्याख्याता ।
सिद्धि साधयतीति नान्युपाध्यायादयः साधवः, अतस्तेष्वन्यतरस्यापि वैयावृत्यकरणे गुणं दर्शयति-मूलारा - साधुरस उपाध्यायादीनामन्यतमस्य । तथ वेव आचार्यधारणातः संघधारणावतः । संबो यतिसमुदायः साधुविदिरित्तो समुदायावयवयोः कथंचिदव्यतिरेकात्साधय एव संघ इति व्यवहियते ||
उसमें
वह कहते हैं
अर्थ - वैयावृत्य कर आचार्यको रत्नत्रयमें स्थिर करनेसे सबको रत्नत्रयमें स्थिर किया सरिखा हो जाता हैं. क्योंकि, आचार्य महाराज शिष्योंको रत्नत्रय ग्रहण कराते हैं. जिन्होंने रत्नत्रयका स्वीकार किया है उनको उसमेंट करते हैं. अतिचार उत्पन्न होनेपर उनको दूर करते हैं. उनके उपदेशके माहात्म्यसे ही संघ अपने में गुणोंका समूह धारण कर सकता है. अन्यथा वह गुणों को नहीं धारण करेगा. इस लिये आचार्य को धारण करने से संघका भी धारण होता है. संघको धारण करनेसे अभ्युदय और मोक्षसुख देनेमें कारणभृत धर्म अव्याहत रूपसे प्रचलित होता है.
उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष वगैरेह को साधु कहते हैं, क्योंकि ये संपूर्ण कर्मका नाश अर्थात् मोक्ष को साते हैं. उपाध्यायादिक साधुओंमेसे किसी एक साधुको रत्नत्रयमें धारण करनेमें कोनसा गुण है इसका उत्तर आचार्य कहते हैं-
जैसे आचार्यका वैयावृत्य करनेसे संधका धारण होता है वैसे एक साधुको वैयावत्य कर रत्नत्रय में स्थिर करनेसे संका धारणा होता है. अर्थात् यतिओं का समुदाय रत्नत्रय में स्थिर होता है, एक साधुको रत्नमें स्थिर करनेसे समस्त यतिसमूह को कैंसा धारण कर सकते हैं ? क्योंकि समुदाय और अवयव परस्पर भिन है. इसका उत्तर ऐसा है - साधु हि संघ है. साधुओंसे संघ भिन्न पदार्थ नहीं है. क्योंकि समुदाय और अवयव परस्परसे कथंचित् अभिन्न हैं. इसप्रकार अव्युच्छित्ति गुणका दोन गाथाओंसे विवेचन किया है.
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