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________________ SATA मूलाराधना आवास ४३६ । मूलारा--संसिठ्ठ व्यंजनसंमिश्र, फलिहा व्यंजनैकापावस्थितांदनं । परिखा व्यंजनमध्यस्थितकरं । पुप्फोहिदं पुष्पप्रकरबदजनमध्यप्रकीर्णसिक्थक । सुद्धगोवहिरं शुद्धेन निष्णवाद्यसंसृष्टतान्ननोरहितं संसृष्टं शाकव्य जनादिकं वा । यदि वा शुद्धन केवलेन केन जलेगोपहित कूरं । लेवई हस्तेलेपकारि घोलादिकं । अलेवई हस्तालेपकारि माश्रितादिकं । पान द्राक्षादिशोधित पानकं । तच नि:सिक्थं ससिक्यं वा । भोन्यतया कल्पयति । अर्थ-शाक और कुल्माष अर्थात कुलत्यादिक धान्योंसे मिश्रित अन्नको संमृष्ट कहते हैं. इस प्रकारका अन यदि मिले तो आहार करूंगा अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करना. फलिह थाला मध्यमें भात रखकर उसके चारों तरफ भाजी रखना ऐसी रचनाको फलिह कहते हैं. इस तरहकी आकृतीका आहार यदि मिले तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करना. परिखा-मध्यमें अब रखकर आसमंतात व्यंजन रखना उसको परिख कहते हैं. इस प्रकार का अन्न यदि मिले तो आहार करूंगा अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करना. पुप्फोपहिंद-व्यंजनों के बीचमें पुष्पोंके समान अनकी रचना करना उसको पुष्योपहित कहते हैं, ऐसी रचना किया हुआ आहार यदि मिले तो लेने की प्रतिज्ञा करना, जिसमें मठ इत्यादि धान्यका मिश्रण नहीं है परंतु जिसमें भाजी और व्यंजन--चटनी बगरे पदार्थ मिले हुये हैं उसको शुद्ध गोवहिद कहते हैं उसकी प्रतिज्ञा करना. लेब-हाथको चिपकने वाला अन लेनेकी प्रतिक्षा करना-अलवड-जो हाथको नहीं चिपकता है एमा आहार लेनकी प्रतिज्ञा करना. पान-सिक्थराहेत अथवा सिक्थसहित आहार लेनकी प्रतिक्षा करना, पत्तस्स दायगस्स य अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए ॥ इञ्चेवमादिविधिणा णादचा बुत्तिपरिसंवा ॥ २२१॥ विजयोत्या वनस्म पर्वभूतेन भाजनेनेघानीतं गृहामि सीवर्णन, कंसपाघ्या, राजतन मृगमयेन वा । दाय. मस्स या नियत्र तत्रापि वालया, युवत्या,स्थविरया, निरलंकारया, ब्राह्मण्या, राजपुश्या इत्येवमादि अभिग्रहोऽवग्रहः । बहुविवो बहुविधः । ससत्तीए स्वशक्त्या । इवेवमादि एवंप्रकारा विधिहा रिविधा । णायब्वा शातष्याः। बुत्तिपरिसंख्या वृत्ति परिसंख्या।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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