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सुताराधना
आश्वास
को णाम णिरुव्वेगो सुविज दोसेसु अणुवसंतेषु ॥ गहिदाउहाण बयाण मञ्झयारेव सत्तूणं !! १४४६ ।। को दोषेष्यप्रशातिषु निरुद्वेगोस्ति पंडितः।।।
द्विषत्स्यिद समीपषु विविधानर्थकारिषु ॥ १५०४।। विजयोदया--को पाम पिल्वेगो को नाम नियमः स्यपेद्रागादिषु संसारप्रवर्द्धनेषु वोपेषु अनुषशांतनु । गृहीतायुधानां शत्रूणां बहना मध्ये इव ॥
मूलारा-मायारे मध्ये।।
अर्थ-जैसे जिन्होने हामि धारण किये हैं ऐसे शत्रुओंके बीच में निर्भय होकर कोन स्थिर रह सकता है। वैसे संसारको बानेवाले रागदिक दोष शांत नहीं होनेपर कौन ज्ञानी पुरुष निर्भयतासे सोवेगा. अर्थात रागादिक विकार शत्रुके समान इस जीवको कष्ट दे रहे हैं एसे प्रसंगमें निद्राधीन होना क्या योग्य माना जायगा?
णिहा तमस्स सरिसी अण्णो णस्थि हु तमो मणुस्साणं ।। इदि णच्चा जिणसु तुमं णिद्दा उझाणस्स विग्घयरी ॥ १४४७ ।। नास्ति निद्रातमस्तुल्यं परं लोके यतस्तमः॥
सर्वव्यापारविध्वंसि जयेदं सर्वदा ततः ।। १५०५ ।। विजयोदया-णिदा निद्रा तमस्सहशमन्यत्तमो नास्ति मनुजाना इति शास्वा निद्रा ध्यानस्य विनकारिणी जयेति ॥ मूलारा-धि तिमिरांतरस्य सद्भयानप्रतिबंधाक्षमस्यात् ।। उक्त प
नास्ति निद्रातमस्तुल्यं परं डोके यतस्तमः ।।
सर्वव्यापारविध्वंसि जयेदं सर्वदा ततः ॥ अर्थ-निद्रारूप अंधकारके समान जगतम अन्य अंधकार है ही नहीं ऐसा समझकर ध्यान में वित्त ढाल- . नेपाली इस निद्राको सुम जीतो. ..