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________________ 390 मूलाराधना आश्वासः विजयोदया-सज्ज यसति । उयाध उपकरणं । संथारभसपाणं च संस्तर भक्तपानं च । भमुद्धं उद्गमादिदोपोपहतं । उवकपयेज्ज उपकल्पयेत् । कः चय पाकप्पगदो ज्ञानाचारादिकावीषच्च्यवनमुपगतः । पडिचरए वा प्रतिचारकान्या योजयेत्। अरबिसगे असंविग्नान् पचमसंयमें कृते महान्कर्मबंधो भविष्यति ततोऽस्माकं महती संसृतिरनेकापन्मूलेति 1 भयरहितान् । आचारहीनाश्रयण दोपं गायात्रवेणाह मूलारा । चणकापगदो ज्ञानदर्शनादिपु च्यवनमुपगतः । उवकापन्ज योजयेन् । असुद्ध उगमादिदोषोपहत । पडिचरा प्रतिचारफान । अविग्गे गबमसंवर्ग कृतेऽस्माकं महान्कर्मयंधो भविष्यत्ति इति दीर्घसंमृतिभयरहिताम् ॥ जो आचार्य आचारयान नहीं है ऐसे आचार्य का आश्रय करनेसे क्षपककी हानि होती है. इसका खुलासा अर्थ-जो ज्ञानाचारादिक पांच आचारोंसे थोडासा भ्रष्ट हुआ है ऐसा आचार्य क्षपकको वसतिका. पिछादिक उपकरण, नृणादिकीका संस्तर, आहारके पदार्थ, पीनेके पदार्थ उद्गमादि दोष सहित देगा. अर्थात बसनि गैरह पदार्थ दोषरहित है या नहीं इसका विचार वह न करेगा. अथवा आपककी शुश्रुषा करनेवाले मनि संसारभयसे युक्त है बा नहीं इसका विचार न कर वैराग्यरहिन मुनिआको क्षपककी शुश्रूषा करनेके कार्यमें नियुक्त करेगा. हम यदि असंयममें प्रवृत्ति करेंगे तो हमको महान् कर्मबंध होगा और वह हमको दीर्घकालतक संसारमें भ्रमाचेगा एसी भीति जिनके मनमें नहीं है उनको शुश्रुषा करने के लिये नियुक्त करनेसे क्षपकका आत्महित होना अशक्य ही समझना चाहिये. PARAMARAat-AARTARA HastAARAMMEReer kore ६३३ सल्लेहणं पयासेज्ज गंध मल्लं च समाजाणिज्जा !! . अप्पाउणं व कधं करिज्ज सइरं व जपिज्ज ॥ ४२५ ॥ सहननायाः कुरुते प्रकाशनां कथामयोग्यांक्षपकस्य भाषते ॥ स्वरं पुरस्तस्य करोति मंत्रणं गंधपसूनादिविधिं च मन्यते ॥ ४३८ ।। विजयोदया---सल्लेशण पगासेज्ज्ञ सलेम्सना प्रकाशयेत् लोकस्य । गंध मात्यं चानुजानीयात् । गंधमाल्यान IN
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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