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राधना
आश्वासः
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तत्प्रवर्तते निरतिचारमक्लेशेन नैय भक्तप्रत्याख्यानमइति । इदानीमहं यदि न त्यागं कुया निर्यापकाः पुनर्ग लप्स्यन्ते सूरयस्तदभाचे नाइं पंडितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्तप्रत्याश्यामाई एव ।
अईप्रसंगादायातमनई तन्मुखेन वा पुनरर्हमेव लक्षयितुं गाथायमाह
मूलारा-उस्सरदि नितरा प्रवर्तते । णिज्जायगा पंक्तिमरणाराधनासहकारिणः सूरयः । सुलहा तत्काले युसर कालेऽपि सुभापाः : दुभिक्खभयं अग्रे धान्यायादिओ विना चारित्रदानिमें भविष्यतीति भीतिः ।
प्रत्याख्यानमरणके लिये अयोग्य कोन है इसका खुलासा --
अर्थ-जिस मुनीश्वरका चारित्रपालन निरतिचार होता है और आयासके विना होता है वह भक्त प्रत्याख्यानके लिए अयोग्य है, अथवा सल्लेरखनाके साधक निर्यापक आचार्य मुलभ हो तथा दुर्भिक्षका भय यदि न हो तो ऐसे समयमें मुनि समाधिमरण धारण न करे, अभिप्राय यह है कि, उपर्युक्त गाथाओंमें कहे हुए कारण आपहनेपर मेरे चारित्रका नाश होगा ऐमा समझकर मुनि भक्तप्रत्याख्यान करते हैं और यदि वे कारण नहीं हो तो मुनि भक्तप्रत्याख्यानमें प्रयत्न नहीं करते हैं. इस समय यदि मैं मक्तप्रत्याख्यान न करूंगा और आगे यदि नियापक आचार्य मेरेको न मिलेंगे तो उनके अभावसे मैं पंडितमरण न साध सकुंगा ऐसा यदि भय हो तो वह मुनि भक्तप्रत्यारल्यानके योग्यही है ऐसा समझना चाहिए, यदि निर्यापकाचार्य सुलभ हो और भविष्यकालमें दुर्भिक्षकी भीति न हो तो वह मुनि भक्तप्रत्याख्यानके लिये अयोग्य समझना चाहिये.
यदि च सुलभा निर्यापका अनागतदुर्भिक्षभयं च यदि न स्यान्न भययईः इति कथयति ।
तस्स ण कप्पदि भत्तपणं अणुबढ़िदे भये पुरदो ॥ सो मरणं पच्छितो होदि हु सामण्णणिविष्णो ॥ ७६ ॥ नासावर्हति संन्यासमदृष्टे पुरतो भये ॥ भरणं याचमानोऽसौ निर्विषणो वृत्ततः परम् ।। ७८ ।।
इति अभिधेयं सूत्रम् ॥