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आवासः
गलागधना
विजयोदया-तस्स तस्य । ण कप्पदि भत्तपापणं न योग्य प्रत्याख्यानं मक्तस्य । भये पुरदो अगुवष्टिदे भये पुरस्तादनुपस्थिते । सो सः । निरतिचारधामण्यः सुलभनिर्यापकः अनुपस्थितदुर्भिक्षभयःमरण मृति । पेच्छतो प्रार्थयमानः । खुशब्द पयकारार्थः । पबमसी संभारनीय! मामण्णगिविण एवं होदित्ति । श्रामण्यात्रिविण पन संभवतीप्ति । ननु च अरिहेति आई. एव सूचितो नानई, तन्किमर्थमसत्रितयाख्या कियते मृत्रकारेण ? अईमगादायानमिति केचिन् । अनहमपि लक्षणतया अनन्य सूचित इति वा न दोषः । स्वपरभाराभावो नयाधीनामलाभन्वात्सर्ववस्तूनां इति मन्यते ॥ अरिहरेसि गबम् ।।
मुलारा-ण कप्पदि योग्यो न भवति । अणुवठ्ठिदे अद्योकिते ।। खु इत्यादि श्रामण्यनिर्विपण एव | अहः । सूत्रतः ।। १॥ अकतः ॥ ६॥
यही अभिप्राय आगेकी गाथामें आचार्य कहते है
हिंदी अर्थ --जिसके चारित्रमें निरतिचारता है, निर्यापकाचार्य जिसको सुलभतासे मिलते हैं, दुर्भिक्षकी भीति जिसको उपस्थित नहीं हुई है ऐसा भी मुनि यदि मरणकी इच्छा करेगा तो वह मुनि चारित्रसे विरक्त हुआ है ऐसा समझना चाहिये.
शंका--' अरिहेति ' इस शुत्रसे अईकाही वर्णन करना चाहिये सूत्रकारने क्यों सूत्रके विरुद्ध अनईका भी निरूपण किया हैं ? इसका समाधान-अईके प्रसंगसे अनईका भी वर्णन सूत्रकारने किया है ऐसा कोई समाधान | करते हैं. .. .. .
स्वस्वरूपकी अपेक्षास जो बस्तु है वही परस्वरूपकी अपेक्षासे अवस्तु होती है, ऐसी सर्व वस्तुओंकी व्यवस्था है. अतः अई जैसे अपने लक्षणसे अई है उसी तरह जनई भी अहके उलटा होनेसे अनर्ह माना जाता है अनह सर्वथा अभावरूप नहीं है. जितने पदार्थ है ये सभी नयसे सिद्ध होते है. अतः अनईका भी लक्षण आचार्यने लिखा है वह अयोग्य नहीं है,
भक्तप्रत्याख्यानके लिये जो अर्ह-योग्य है उस मुनिको भक्तप्रत्याख्यानके लिये उचित सामग्री रूप लिंगका वर्णन आचार्य आगेकी गाथाओंसे करते हैं.
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