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मूलाराधना
आश्वासः
फिमेप विपरीतं प्रतिपद्यमानोऽपि सर्वदा सम्यग्दृपिरव! नेत्याह
सुत्तादो ले सम्म इसिजसं जड़ा ग सद्दहदि । सो चेव हबइ मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि ॥ ३३ ॥ दर्यमानं पदा सम्यक् श्रदधाति न सूत्रतः॥
तमर्थ स तदा जीवो मिथ्यादृष्टिर्निगयते ॥ ३६॥ बिजयोदया-सुत्तादो इति । मुत्लादो सूत्रात् । तं आत्मना पिपरीतं गृहीतमय 1 सम्म सम्यक् अविपरीतरूपेण । वरसिजंतं दयमानं प्ररूप्यमाण अन्येन भाचार्यण । जदा यदा यस्मिन्करले । न सहइदिन थदधाति । सो वेब स एव सभ्यग्रहितयोक्तः । मिच्छादिट्टी हवर मिथ्याधिर्भवति । आप्तामाथ्रज्ञानवैकल्पात् अर्थयाथात्म्या. थशाना 1 तवो ततः। पहुँदि प्रभृति आरभ्य । असंदिग्धसूत्रांतरदर्शितार्थाथद्धानादारभ्येति यावत् ।
किमेष विपरीतं प्रतिपद्यमानोऽपि सर्वदा सम्पपिरेव नेत्याह--
मूलारा-सत्तादो सूत्राद्गधरागन्यतमप्रथितमागममानित्यत्ययः । तं प्रथमगुरूपदेशेन भित्र्याप्रतिपन्नमर्थ सम्म दरसिज्जत अन्येन गुरुणाऽविपरीत प्ररूप्यभाण । सो येव स एव सम्यग्दृष्टितयोक्तो मिथ्याष्टिभवति । आमाज्ञानदानवैधुर्यादर्थयाधात्म्याश्रद्धानाञ्च । तदो पहुदि । असंदिग्धमुत्रतिरदर्शितार्थाश्रद्धानादारभ्य ।
क्या जीवादि पदार्थीका विपरीत स्वरूप मानता हुवा भी यह हमेशा सम्यग्दृष्टि ही रहता है अथवा नहीं ? इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देने है--
हिंदी अर्थ---' तुमने पदार्थीका विपरीत अर्थ जाना है उसका श्रद्धान छोड दो और हमने जो पदाथका सच्चा स्वरूप कहा है उसके ऊपर श्रद्धा करो.' ऐसा आचार्यके कहने पर भी जब वह आपना आग्रह नहीं | छोडेगा तो तबसे वह मिथ्यादृष्टि समझा जायगा. आचार्यने प्रमाणभृत ऐसे गणधरादिकोंके रचे हुए आगमसे जीवादकोका स्वरूप बताया था तो भी उसका उस आप्ताबाके उपर श्रद्धान नहीं रहनेसे और अर्थके यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धान न होनेसे वह मिथ्या दृष्टि ही समझा जाता है.