SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 981
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलारावना विजयोदया–परिहर परित्यज । असंतययणं असद् अशोभनं वचनं । यत्कर्मनिबंधनं यचस्तदशोभन । 12आश्वासः नथा चोक्तं-'असदभिधानमनृतं 'ननु वचनमात्मपरिणामो न भवति । द्रव्यांना हि तत्पुद्गलाख्यं, आत्मपरिणामो हि. त्यायो यो वेधस्य पंधस्थितर्वा निमित्तभूतो मिध्यात्वमसंयमः कमायो योग इत्येयंप्रकार | तस्मादसटूचनपरिहारोपदेशोऽनुपयोगी कस्मात्कृत इति अत्रोच्यते-असंयमो हि त्रिपकारः कृतः कारितोऽनुमतश्च । इपमस्मिन्नसंयमे प्रवर्तयामि अनेन वचनन प्रवृसं वानुजानामि । इत्यभिसंधिमतरण वास्य वचनस्याप्रवृत्तेस्तद्वन्ननकारणभूतोऽभिसंधिरामपरिणामो भवति कर्मनिमित्तमिति परिहार्यस्तस्य परिद्वारे तत्कार्य चयनमपि परिहतं भवति । न वसति कारण कार्यप्रतिपत्तिरित्यसदचनपरिहारोऽनेनन क्रमेणोपन्यस्त इति स्वयमसहचनैकदेशपरिहारेऽप्यपहृतमसद्वचनं भवति इत्याशंका परिहरति सब्यमिति च दुविधमिति तदीयमेवोपन्यासः। पयत्तेणेति । रात्र अप्रमत्ततामुपविशति । धत्तं पि संजमतो नितरामपि संयममाचरनपि । भासावोसेण भागावचनं तन्निमित्तत्वाद्वाग्योमाग्य यात्मपरिणामो भाषाशब्देनोच्यते। भाषादुपः भाषादोषः । वाग्योगेन तुष्टेन निमित्तेन जातं यत्कर्म तेम। लिप्पनि लिप्यत एव संयध्यत एष मात्मा । एतेन कर्मबंधनिमिः सतादोपकथनेन असद्धचनपरिहारे बायें करोति क्षपकस्य । दुसरे सत्यमहाव्रतका निरूपण करने के लिये आचार्य प्रारंभ करते हैं. अर्थ-असत्य भाषण का हे क्षपक! तू त्याग कर क्यों कि वह बंधन का कारण है. तत्वार्धाधिगममें • असदभिधानमनृतम्' इस सूत्र में यही अभिप्राय कहा है. शंका-बचन अर्थात् बोलना यह आत्मपरिणाम नहीं है. बह पुद्गल नामक द्रव्यका परिणमन है. जो आत्मपरिणाम बंध अथवा बंधस्थितिका निमित्त है वही त्याज्य है. मिथ्यात्व, असयम, कषाय, योग ये आत्मपरिणाम कर्मबंधके कारण होनस त्याज्य है. इस लिये असत्य वचनका परिहार करना, त्याग करना कुछ उपयोगी नहीं है. अतः उसका त्याग करनेका उपदेश क्यों किया? उत्तर-असंयमके कृत कारित और अनुमत ऐसे तीन प्रकार हैं. इस मनुष्यको इस असंयममें मैं प्रवृत्त करूंगा अथवा वचन के द्वारा स्वयं असंयममें प्रवृत्त हुए इस मनुष्यको मैं अनुमोदन देऊंगा. इस प्रकारके संकस्पके बिना वचनकी प्रवृत्ति होती नहीं. इसवास्ते ऐसे बचनका कारण आत्मपरिणाम है. यह आत्मपरिणाम कर्मबंध होने में कारण है अतः त्याज्य है. इसके त्यागसे इसका कार्यभूत बचन भी त्यागा जाता है. यदि कारण न हो तो कार्यका ज्ञान कैसे हो सकेगा. इस लिये असत्य वचनका त्याग इस क्रमसे आचार्यने दिखाया है. असत्य वचनके-आचार्यने चार भेद किये हैं. इन सब भेदोंका त्याग हे क्षएक! तूं प्रयत्नसे कर. क्योंकि या संयमका आचरण करता हुआ मी मुनि मापादोषसे उत्पन्न हुए कर्मसे लिप्त होता है. अर्थात् दुष्ट वचन योगसे जो ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy