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मूलाराधना
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एकेंद्रियप्वयं जीवः पंचस्वपि निरंतरम् ॥
उत्थानवीयराहतो दीनो वंभ्रम चिरम् || १८६३ ॥ विजयोदया-निधिस पंचायवेसु वि पद्रियेषु पंच प्रकारेण्याप । पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पति शरीरस्थारिपु । उत्थाणाचीरियविहीणो पृथिव्यादिकायान परित्यज्य उसकायनामिनिमित्तोत्थानवीयरहितः । भमदि अणतं कालं भ्रमति अनंतकालं । दुक्खसहस्साणि पाचतो दुःखसहस्त्राणि माजुवम् ॥
मूलारा-उत्थाणवीरियविहीणो पृथिव्यादिकायत्यागेन असकाद्यप्राप्तये यदुत्थानवीर्यमुद्भवशक्तिस्तद्रहितः ।।
अर्थ-पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति ये पांच स्थावरकायिक जीव है इनमें अपना पर्याय त्याग कर प्रसत्व प्राप्त करनकी शक्ति नहीं रहती है. इसालये अनंतकालतक हजारो दुःख सहन करते हुये ये जीव इसही पर्याय में भ्रमण करते हैं.
बहुदुक्खावत्ताए संसारणदीए पावकलुसाए । भमइ घरागो जीवो अण्णाणनिमीलिदो सुचिरं ।। १७९० ॥ चित्रदःस्त्रमहावामिमां संमृतिवाहिनीम् ।।
अज्ञानमिलितो जीवो गाहते पापपाथसम् ॥ १८६२ ।। विजयोदया-बहुदुक्सवसार बहदुसतयां । समसारणदीप संसृतिना । पावकलुसाप पापकलंकहितार्या । वरागो जीवो भमदि दीनी जात्रो भ्रातः । मुन्दिर अग्णाणनिमीलिदो अज्ञानन निमीलितः ॥
मूलारा-स्पटम् ॥
अर्थ-अनेक दुःखरूपी गावर जिसमें हैं. पायरूपी मलिन पानीस जो युक्त है एसी इस संसारनदम यह दीन जीव अज्ञानसे बेसुध होकर भ्रमण करना है.
विसयामिसारगाढं कुजोणिणेमि सुहदुक्खदढखीलं ।। अपणाणतुबधरिद कसायदढ़पट्टयाचंध ।। १७९१ ॥