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________________ नागना आश्वास उाचदिगेण याचता प्रायश्चित्तेन । शिमुशदि विशुद्धयति । तावदिग ताव परिमाण प्रायश्चित्तं अल्प महदा देदि ददाति । जिद कारणों परिनितम्यादिवत्तदान किया। उक्तार्थ प्रकृने योजयन्नाद मूलारा-णरूचा ज्ञात्वा । सहबासेन तत्कार्योपलंभातरचनाहा निश्चित्य । मुत्तचिदू छेद्रसूत्रज्ञः । णालिगधम्मगो व सुवर्णकार इव । जाबदिगेण चावता । अल्पेन महता वा प्रायश्चित्तेन वहिना च । बिसुज्झवि विशुद्धधति निर्मलीभवति मुनिः कांचनं च । जिदकरणो परिचितप्रायश्चित्तदानाक्रेयः।। अर्थ-प्रायश्चित्त शास्त्रज्ञ आचार्य जिसने अपराध किये थे ऐसे क्षपके परिणाम जानकर जितने प्रायश्चिनसे. वह शुद्ध होगा उतना प्रायश्चित्त उसको देते है. जैसे सुवर्णकार अनिके सामथ्र्य असामर्थ्यको देखकर तदनु रुप कम या अधिक हवासे उसको प्रज्वलित करता है बैंसे प्रायश्चित्त देनेके कार्यका जिनको पूर्ण परिचय हुआ है ऐसे आचार्य इसका अपराध छोटा है या बढा है. इसके क्रोधादि परिणाम तीव्र थे या मंद थे इस विपयका विचार कर अनुरूप प्रायश्चित देते है. दुसरेके परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं इस प्रश्नका उत्तर- सहवाससे परिणाग जाने जा सकते हैं अथवा उसके कार्य देखनेपर उसके तीव्र या मंद क्रोधादिकका स्वरूप मालुम होता है. अथवा जब तुमने अतिचार किये थे तब तुमारे परिणाम कैसे थे ऐसा उसको पूछकर भी परिणायोका निर्णय किया जा सकता है. eHIORNO 218 आउज्बेदसमत्ती तिमिछिदे मदिविसारदो वेज्जो ॥ रोगादकाभिहदं जह णिरुजं आदुरं कुणइ ।। ६२७ ॥ उल्लाघीकुरुते वैद्यो वैद्यशास्त्रविशारदः ।। यधातुरं कृताभ्यासो रोगातकादिपीडितम् ॥ ६५० ।। विजयो -आउग्वेदसमत्ती नितिसमस्तायुर्वेदः । तिगिछिदे चिकित्सायां । मविविसारदो युद्धपा निपुणः । चाजो नद्यः । रोगातकामिहदं महता अल्पन वा बाधिनः पीडित । आदुरं व्याधितं । जहयथा। णिराज कुणदि विशुद्ध करोति। ८२९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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