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________________ मूलाराधना भावास . ३० संधार्थकनिपुणो वैद्यो गिणनिवाचार्य: अपर्क मंगारमय करतीनि गाथार्थनार मूलारा----आउब्वेदसमची नितिसनस्तवेद्यकशाखः । तिगाछद विकसिसे । रोगासंकामिहद अपन महता का व्याधिना पीडितं । जिम नीरज निरामयं ॥ अर्थ-जिरते समस्त प्रमागर्नेदशासक दास साप्त कर लिया है, जो रोगपरीक्षण करनेमें निपुण है ऐसा वैद्य छोटे अथवा बडे रोगोंसे पीडित मनुष्यको औषधि देकर जैस नीरोग करता है उसी प्रकार एवं पवयणसारसुयपारगो सो चरित्तसोधीए । पायच्छित्तविदण्हू कुणइ विसुद्धं तयं खवयं ॥ ६२८ ।। गणाधिपः कृताभ्यासो व्यवहारविचक्षणः ।। क्षपकं म्रलिनीभूतं निर्मलीकुरुते तथा ।। ६५१॥ विजयोदगा - पर्ष पधयपसारसुपपारगो प्रवचने यत्सारभूनं धृतं तस्य पारगतः । पायच्छित्तविदण्ट्र मायशित्तक्रमशः 1 चरित्तसोधीए चारित्रशुद्धया। तयं खचयं तक क्षणकं । विसुद्ध कुणदि विशुद्धं करोति । मूलारा-पचयणसारसुदधारगो प्रवचनस्य जिनागमस्य सारभूनं श्रुतं प्रायश्चितसूत्र तत्समस्त जानन ।। अर्थ--आगममें जो सारभूत श्रुतज्ञान है उसमें प्रवीण, प्रायश्रिन शास्त्र के ज्ञाना आचार्य क्षपकको प्रायI श्चित्त देकर उसका चारित्र निर्मल बनाते हैं. स्थविरे व्यावर्णितगुणे भमत्यन्योऽपि भवति निर्यापक इति शंकायां कथयति - एदारिसंमि थेरे असदि गणत्थे तहा उबज्झाए ॥ होदि पयत्ती थेरो गणधरवसहो य जदणाए ।। ६२९ ॥ गणस्थिते ऽसतीदक्षे स्थविरेऽध्यापके तथा ॥ अस्ति प्रवर्तको वृद्धो बालाचायाश्च यत्नतः ।। ६५२ ।। विजयोदया - एदारिसमि ब्यावर्णित पुणे । थरे स्थविरे विद्यमाने । गण गणस्थ । तदा तथा । उयन्माए
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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