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________________ मूलाराधना আম্বা इति विलोक्य तपःफलभुत्तमं विमलवृत्तनिवेशितमानसः ॥ तपसि पूसमतियतने यतिः कुतपसः स फले विगतादरः ।। १५३४ ।। विजयोदया–पर्य णाण एवं पात्या नपो महोपकारि संयम स्थित्वा तपसा भावयितथ्य आत्मा नित्यपि उपयुक्तेन ॥ उपसंहारमाहमूलारा-ठिचाण स्थित्वा । जुत्तेण उपयुक्केन ॥ अर्थ---इस प्रकार तप महा उपकारक है ऐसा जानकर संयममें स्थिर होकर हमेशा उपयुक्त सपके द्वारा आत्माका अभ्यास करना चाहिए। जह गहिदवेयणो वि य अदयाकज्जे णिउज्जदे मिच्चो । तह चेव दमेयम्वो देहो मुणिणा तवगुणेसु ॥ १४७५ ॥ तपःक्रियायामनिशं स्वविग्रहो नियोजनीयो यतिना हितैषिणा ।। नियोज्यते किं न गृहीतवेतनो मनीषिते कर्मणि न स्वचेटकः ॥ १५३५॥ विजयोदया-अह गहिदवेयणो घिय यथा गृहीतवेतनोऽपि न दयाकार्ये नियुज्यते भृतकः । तथैव दमितव्यो देहो मुनिना तपोगुणेषु । उत्तर पूर्ण ॥ मूलारा--गाहिदवेदणो गृहीतं बेतन कर्ममूल्यं येन | अदयाए निर्दथे । भदगो भृतकः कर्मकरः । दमेदग्यो छेश्यः । तबगुणेसु तपोभेदेष्वनशनादिषु । तपस्युगमः ।। अर्थ-जिसको वेतन दिया है ऐसे नोकरको हमेशा कार्यमें नियुक्त करना चाहिए उसके ऊपर दया नहीं करना चाहिए. वैसे यह देह मुनिके द्वारा तपोगुणमें हमेशा लगाना चाहिय. १३० इच्चेव समणधम्मो कहिदो मे दसविहो सगुणदोसे ।। एत्थ तुममप्पमत्तो होहि समण्णागदसदीओ ॥ १४७६ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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