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________________ आश्वामा मूलाराधना ८६७ मलारा. - जाविधम्मो यत्तेधर्मो वैयावृत्यकरणं पडावश्यक च रयत शक्तिवैकल्यात् । पापस्स य वोच्छेदो ज्ञानस्यापि न्युच्छेदः स्यानिर्यापकमरणात् । पक्यणचाओ सदो नतो ज्ञानव्युच्छेदात् प्रवचनस्यागमस्य त्यागो विसर्जन भवति भोजनाव्यकरणेनातिक्लिष्टस्य निर्यापकस्य मरणात् । प्रज्ञा शिकचिव म्युः ।। अर्थ-क्षकका अथवा अपना त्याग होनेपर पतिधर्मका दी त्याग हुआ. वैयावृय करना पतिका धर्म है. आत्मत्याग अथवा क्षयकका त्याग होनसे यतिधर्म भी नष्ट होता है, क्षपकको छोडकर यदि निर्यापक जावेगा अथवा नहीं जायेगा तो यति धर्ममें जो सामायिकादिक अवश्य कर्तव्य है उनका त्याग होगा. शक्ति कम होनेसे ज्ञानका भी नाश होगा. निर्मापक और धपक दोनो भी मरेंगे तो आगमका त्याग होगा. प्रायः विद्वान एकाद ही होता है. इस बास्ते अहारादिकके कष्टसे खिन्न होकर निर्यायक मरणको प्राप्त होगा तो कोन शाखाका उपदेश करेगा और कोन शास्त्रको धारण करेगा? इसलिये एकही निर्धापक होनेसे प्रवचनत्याग होता है. यह सिद्ध हुआ. 9%85BTER व्यसनं व्याचले चायम्मि कीरमाणे वसणं खवयरस अप्पणो चावि॥ खवयरस अप्पणो वा चायम्मि हवज असमाधि ॥ ६७७ ॥ क्षपकस्यात्मनो वास्ति स्यागतो व्यसनं परम् ।। भवेत्ततोऽसमाधान क्षपकस्यात्मनोऽपि वा ॥ ७०२॥ विजयोदया-चायग्मि कीरमाणे त्याग क्रियमाण । वसण स्वचगरस क्षपकस्य दुःखं भवति, प्रतिकाराभावात् । अपणो बसणं नियतकरय या व्यसनं भवति अचानाविन्यागात असमाधिमरणं व्याचऐ-चागम्मि त्याग सति । स्थगस्स चसमाधि क्षपकस्य असमाधिमरा भवति ।त्तिसमाधं कुर्वतः समीप अभावात् । अप्पणो या निर्याएकस्य वा । हज्ज मवेत् । असमाधिः अशानादित्यागजनित दुःसव्याकुलस्य । स्वपरत्यागे दु.खमाया-- मूलारा- खवयरस क्षपकरय दुःख स्यात्प्रतीकाराभावात् । अपणो अशनारित्यागात् । असमाधी अपकस्य असमाधिः । समाधिकराचार्यसंनिधानामाचावाचार्यस्य था अशनादित्यागजनितदुःखसंक्लेशावेशात् ।। ८६.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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