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________________ मूलारापना ८६८ व्यसन अर्थात् दुःखका वर्णन करते हैं अर्थ-निर्यापकने क्षपकको छोड देनेपर क्षपकको दुःख होता है. उस दु:खकर क्षपक कुछ भी प्रतिकार नहीं कर सकता है. और आहारादिकका त्याग होनेसे निर्यापकको दुःख होता है. क्षपकका त्याग करने पर उसके अंतःकरणको रत्नत्रयमें एकाग्र करनेवाला कोई न होनेसे उसका असमाधिमरण होता है. और यदि क्षपकके पास इमेश निर्यापक रहनेसे उसको आहारादिकोंका त्याग करना पडेगा जिससे निर्यापककी भी रत्नत्रयमें एकाग्रता होना असंभव होगी. सेवेज्ज बा अकप्पं कुब्जा वा जायणाइ उड्डाहं ।। लण्हाछुधादिभग्गी खवओ सुण्णम्मि णिज्जवए ॥ ६७८॥ क्षुधादिपीडितः शन्ये सेवते याचते यतः ॥ क्षपकः किंचनाकल्प दुमोचमयशस्तनः ॥ ७०३।। विजयोदशा-सेवेज्ज वा अप्पं अयोग्यसेंधा कुर्शन् । अस्थितभोजनादिकं पावार्तेन्यसति । कुज्जा या कुर्याद्वा । जायणाइ उडाई मिथ्यादृष्टीनां गत्वा याचते क्षुधा वा तुघा वा अभिभूतोऽहं अशन पान बा देहीति । मुण्यम्मिणिज्जयमे असति निर्यापके ॥ निर्यापकाभावेऽकीर्ति वक्ति मूलारा-अकप्पं अयोग्यमस्थितिमोजनादिक । जायणादि. याचनामनपामाविकानं मिध्यादृष्टीन्प्रति । आदिशब्देन तलायेशादिकं । भग्गो पीडितः । सुग्णम्मि अविद्यमाने । अर्थ- यदि एक निर्यापक आहारादि के वास्ते बाहर गया तो इधर क्षपक अयोग्य सेवन करेगा अर्थात् बैठकर भोजन करना वगैरह कार्य करेगा. किंवा मिच्या दृष्टिके पास जाकर याचना करेगा. मैं भृखसे पीडित हुआ है अथवा प्याससे कष्टी हो रहा हूं मेरे को खोनेके लिये या पीने के लिये दो ऐसी याचना करेगा.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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