SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाराधना १५६७ रोगाणं पडिगारा दिठ्ठा कम्मस्स णत्थि पडिगारो ॥ कम्मं मलेदिह जगं हत्थीव निरंकुसो मत्तो ॥ १७४१ ॥ प्रतीकारोऽस्ति रोगाणां कर्मणां न एनर्जने ॥ कर्म गृहाति हस्तीव लोकं मत्तो निरंकुशः ॥ १८०७ ॥ विजोदरोगा पगारा दिट्ठा व्याधीनां प्रतीकारा दृष्टा औपधादयः । कर्मणां नास्ति प्रतीकारः जगदशेष मईयति कर्म मदगज इव निरंकुशी नानीवनं ॥ समुद्यतमेवार्थी ट्रान्तद्वारेण विवृण्वन्नाह - मूलारा - रोगाणं व्याधीनां अर्थादुपचारजानां कर्मजानां तु छानामेव प्रतीकारः अर्थ - रोगोंका प्रतिकार औषधादिक इलाज तो देखे गये हैं. कर्मका इलाज किसीने भी नहीं देखा है. उन्मत्त हाथी अंकुशकी भी पर्वाह नहीं रखता हुआ कमलवनका मर्दन करता है वैसे ये कर्म भी संपूर्ण जगका मर्दन करते हैं. रोगाणं पडिगारो णत्थि य कम्मे णररस समुद्दिष्णे ॥ रोगाणं पडिगारो होदि हू कम्मे उवसमंते ॥ १७४२ ॥ प्रतीकारो न रोगाणां कर्मणामुदये सति ॥ उपचारो भुवं तेषामति कर्मशमे सति ॥ १८०८ ॥ विजयोदया - रोगाणं पडिगा व्याधीनां प्रतीकारो नास्ति कर्मण्यसद्वेध प्राप्तोदये सति पथ्योषधादिभिरुपशर्मा रोगादीनां सोपि कर्मण्युपशमं गत एवं नानुपशांते ॥ मूळारा - समुदिष्णे सम्मुखोदये । उपलमंदे उपशमं याति मंदोदये भवतीत्यर्थः । अर्थ- जब असातावेदनीय कर्मका उदय आता है तब रोगोका नाश करने में औषधियां असमर्थ हो जाती हैं. यद्यपि पथ्य और औषधियों का सेवन करनेसे रोगों का शमन होना अनुभव में आता है तो भी वहां कर्मका आश्वास ७ १५६७
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy