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________________ मूलाराधना ५९ 'चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं भणियं ' इस सूत्र से समतारूप चारित्रका संपूर्ण कर्मका नाश होना यह फल है ऐसा पूर्व गाथा में कहा है. परंतु कर्मका नाश होना यह पुरुषार्थ कैसा ? दुःखका नाश होना तथा इष्ट सुखकी प्राप्ति होना यही फल मानना योग्य है. ऐसी शंकाका आचार्य इस प्रकार उत्तर देते हैं जिसमें तिलमात्र भी बाधा नहीं है ऐसे पुरुषार्थ रूपी सुखकी प्राप्ति होने में सर्व कर्मका नाश होना यह कारण है अतः वह उपयोगी है ऐसा विवेचन ग्रंथकार करते है- हिंदी अर्थ - धर्म उत्पन्न हुए समस्त दुःखों का अभाव होना यह संपूर्ण कर्मके नाशका फल है. कर्मही सर्व दुःखोंका जनक है अतः जब कमेका पूर्ण क्षय होता है तब दुःखका लेश भी नहीं रहता है. कारणके नाशसे कार्यका नाश होना यह योग्य ही हैं. अतः यह दुःखाभाव अर्थात् सुख अनुपम है उपमारहित है. आत्महितका शोध करनेवाले मुमुक्षु जनोंको मरण समयमें ज्ञान दर्शन और चारित्रमें निरतिचार परिणति करना चाहिये, क्योंकि, जमा चरितसारो भणिया आराहणा पवयणम्मि ॥ सव्वरस पवयणरस य सारो आराहणा तझा ॥ १४ ॥ विजयोदया जा यस्मात् चरितसारो चारित्रस्य ज्ञाने दर्शने पापक्रियानिवृत्तौ न प्रयतस्य चरणं प्रवृत्तिः परिणतिरिह चारित्रशब्देन गृहीता, ततोऽ यमर्थो लब्धः साः फलमिति । भणिदा कथिता । आराहणा आराधना 1 मृतौ अनतन्त्रारत्रयता। एचयणम्मि प्रोच्यते इष्टप्रमाणाविरुद्धेन जीवादयः पदार्था अनेनास्मिन्वेति प्रवचनं जिनागम स्तस्मिन् । अतिशयवतां प्रत्रांताया आराधनाया उपसंहरत्युत्तरार्जुन सास इत्यादिना । समस्त समस्तस्य । पवयणस्त्र जिन्नागमस्य । सारो अतिशयः । आराहणा आराधना व्यावतिरूपा । तम्हा तस्मात् । च शब्द एवकारार्थः स चाराध नाशब्दात्परतो इष्टव्यः । आराधनंध सम इति । अन्यत्र व्याख्या - पवित्र फलं एतचारित्रमात्रात विशिष्टाज्जायते इत्याह-जह्मा चरित्तसारो इति । fर्फ पातनिकार्थी गाथायां संवादमुपयाति न वतीत्यत्र श्रोतास प्रमाणं । कस्मात् ? अतिशयवत्तया राधनागमे ऽभिहिता यस्मात् — आश्वासः ' ५९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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