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भावाम
मनारापना।
१००३
दिवसे प्लोषते सूर्यो मनोघासी दिवा निशम् ॥
अस्ति प्रच्छादनं सूर्य मनोवासिनि नो पुनः ॥ ९१५ ॥ बिजयोदया-सूरग्मी डहदि दिया सूर्यामिति विया, नक्तं विधा दक्षति कामाप्तिः । सूर्यस्याच्छादनकारी उत्रादिकमस्ति न कामानेः ॥
मूलारा-उच्छाकारो आच्छादनकारि छत्रादिकं ।।
अर्थ-सूर्यरूपी अग्रीका ताप लोकोंको दिन में ही संतप्त करता है. परतुं यह कामामि रातमें और दिनमभी चोबीस घंटे जीवाको सताता है. सूर्यसंताप सत्रादिकसे दूर कर सकते हैं परंतु इस कामापीको लोक शांत नहीं कर सकते हैं.
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विज्झायदि सुरगी जलादिएहिं ण तहा हु कामग्गी ।। सूरगी डहइ तयं अम्भतरबाहिरं इदरो ॥ ८९८ ॥ वन्हिर्षिध्याप्यते नीरैर्मन्मथो न कदाचन ॥
प्रश्लोषते पहिहिहिरन्तश्च मन्मथः ॥ ९१२ ।। विजयोदया–विज्जायनि सूरगी विध्याति सूर्यजनितस्तारो जलादिमिर्न तया जलादिभिः कामाग्निः प्रशाम्यति । सूर्यस्योष्णत्वं त्वचं दहति । कामाग्निरंतर्बहिश्व दहति ।
मूलारा--सूरमगी सूर्यजनितस्तापः | तयं त्वचम् ।।
अर्थ- सूर्यरूपी अग्रीका संताप जलादिक शीतोपचारसे दूर कर सकते हैं. परंतु कामाग्निको बुझाने के लिये कोई उपाय नहीं है. सूर्यकी उष्णता स्वचाको जलाती हैं परंतु कामाग्नि इस शरीरको और आत्माकोभी
जलाती हैं.
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जादिकुलं संवास धम्माणि य बंधवम्मि अगणित्ता ।। कुणदि अकजं पुरिसो मेहुणसण्यापसमूढो ॥ ८९९ ॥