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________________ मूलाराधना १०४३ पाषाणोऽपि तरेतोये न दहेदपि पावकः ॥ न चित्तं पुरुषे स्त्रीणां प्रांजलं जातु जायते ॥ ९८९ ॥ विजयोदया - उदप पवेज्ज खु उदके तरेवपि शिला, अग्निरपि न दहेत् शीतलो घा भवेत् । नैष यनितानां कदाचिरेषु ऋजु भवति मनः ॥ मूलारा- उदोर्हति निष्काशयति । एतां टीकाकारो नेच्छति || लारा- उदये जले | पवेज्ज सु तरदभि + कदाद कदाचित् । उज्जुगभावो प्रांजलपरिणामः ॥ अर्थ -- अपनेपर आसक्त हुआ पुरुष धर्म, हड्डी और मांस ही शेप जिसका बचा हुआ है ऐसा देखकर मलको लगे हुए मरस्य के समान उसको मार देती है अथवा उसको अपने घर से निकाल देती हैं. पुरुषके पास धन नहीं रहता है तब स्त्रिया उसको अपने देती है या उसको मार डालती है, कदाचिव पानी में शिला तरने लगेगी. अग्नी अपना दाहक स्वभाव छोडकर ठंडी होगी तोभी त्रिओका मन कभीभी कपर छोडकर सरलता नहीं धारण करेगा. उज्जुयभावम्मि असन्तयस्मि किध होदि तासु वीसंभो || विरभम्म असंत का होज्ज रदी महिलिया ॥ ९७३ ॥ प्रांजलत्वं विना स्त्रीषु विभां जायते कथम् विश्रमेण बिना तासु जायते कीदृशी रतिः ॥ ९९० ॥ विजयोदया – उज्जुगभावमि ऋजुमाचे असति कथं भवति तासु विसंभः । असति बिसंमे का वनितासु रतिः ॥ मूलाग- स्पष्टम् ॥ अर्थ - स्त्रिओंगे सरलपना नहीं रहता है. अतः वे पुरुषोंपर विश्वास रखती नहीं. विश्वासके अभाव में उनका प्रेम भी स्थिर नहीं रहता. गच्छ समुइस बि पारं पुरिसो तरितु ओघवलो ॥ मायाजलम्भि महिलोदधिपारं ण य सक्कदे गंतुं ॥ ९७४ ॥ आश्वासः ६ १०४३
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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