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लागधना
माधासः
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लोकानमा शपथलिचतसः ॥ १.
हांति मानसं रामा नराणामनुवर्तनः ।। तावद्यावन्न जाति रक्तं कुटिलचेतसः ॥ ९८६ ।। हसित रोदनैर्वाक्यैः शपथैर्विविधैः शठाः ।। अलीकैर्मानसं पुंसां गृहन्ति कुटिलाशयाः ॥ ९८७ ।। हरति पुरुष चाचा चेतसा प्रहरंति ताः ।।
वाचि निष्ठति पीयूषं विर्ष चतसि योषिताम् ।। ९८८ ।। विजयोदया-महिला पुरिसं वयणेहि बनिता पुरुषं वचनई रति । इति च पापेन हदयेन । वाक्ये मधु तिष्ठति । हृदये विर्ष युवतीनाम् ।
मुलारा-अणुवत्तणाए छंदानुवन्या । गुणवयणेहि गुणकीर्तनैः । हरन्ति गृहन्ति । अनुरंजयन्ति । मादा वा माता यथा बालस्य ।।
मूलारा-अलिएहिं असत्यः । एते हे. अपि गाथे टीकाकारो नेति ॥ मूलारा- वाचार वमि ॥
अर्थ-पुरुषके छेदका अनुसरण करके, और उसके गुणोंका वर्णन करके वे पुरुषका मन हरण करती हैं. जब तक पुरुष अपनेमें अनुरक्त हुआ नहीं तब तक वे उसकी गुणप्रशंसा, उसके छंदानुकूल प्रवृत्ति करती हैं. स्त्रिया मिथ्या हास्यवचन, मिथ्या रोना, मिथ्या सोगंद खाना इत्यादि कपटयुक्तिओंसे पुरुषका मन हरण करती है. स्त्री पुरुषका चिप्स मधुर बचनस चोरती है और पापयुक्त हृदयसे उसका घात करती है. स्त्रियों के बचनामें मधु रहता है और हृदयमें विष रहता है.
तो जाणिऊण र पुरिसं चम्मद्विमंसपरिसेसे ।। उद्याहंति वधतिय बडिसामिसलगामच्छ व ॥ ९७१ ॥ उदए पवेजहि सिला अग्गी ण डहिज्ज सीयलो होज्ज । ण य महिलाण कदाई. उज्जयभावो णरेसु हवे ॥ ९७२ ।।