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________________ मूलाराधना माश्चा: ११८० आप कहते हैं तो उस मनका अपाय क्या चीज है ? नाश होना ही अपाय है ऐसा कहोगे तो इस नाशका परिहार करना शक्य ही नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तुका नाशपर्याय होता ही है. यदि मनका नाश नहीं होता है ऐसा मानोगे तो आत्माकी एक ही ज्ञान में हमेशा प्रवृत्ति रहेगी. परंतु समुद्र में जैसे हमेशा अनेक लहरें उत्पन्न होती हैं वैसे आत्मामें हमेशा अनेक धान उत्पन होते हैं. उनका अविनाश होने का अर्थात वे स्थिर रहनेका जमतमें कोई उपाय नहीं है. इंद्रियसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान रागादिकोंसे युक्त ही रहता है. अत एव रागादिकोंसे व्यायत्त होना यह मनोगुप्तिका लक्षण है ऐसा समझना अयोग्य है. उपर्युत शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं:-- नो इंद्रियमतिको हम मन कहते हैं अर्थाद नो इंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे जो जो ज्ञान मनमें उत्पन्न होते हैं उसको हम मन कहते हैं. यह नो इंद्रियमसि रामादि परिणामोंके साथ एक कालमें आत्मामें रहती हैं. विषयोंमें जब अवग्रह, इहादिवान होते हैं तब रागोषकी भी साथ मयुत्ति होती है. यह सबको अनुभवमें आता है. इसकी सिद्धि करनेके लिये अन्य युक्तिकी आवश्यकता नहीं है. परंतु जब वस्तुके यथार्थ स्वरूपका मन विचार करना है तब मानसिक ज्ञान के साथ रागद्वेष नहीं रहते हैं. यह भी अनुभव सिद्ध है. जब मन वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जानते समय रागद्वेषसे रहित होता है तब मनोगुप्ति आत्मा में है ऐसा समझा जाता है. अर्थात् जो जो ज्ञान रागद्वेपसे रहित होगा वह वह मनोगुप्ति ही है. ऐसा समझना अयोग्य न होगा. मनोगुप्ति इस शब्दमें मन शब्द उपलक्षणात्मक है. अर्थात् रागद्वेषरूपी कलंकस रहित सर्व प्रकारक ज्ञानाको मनोगुप्ति कह सकते हैं. अन्यथा इंद्रियज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, और मनःपर्ययज्ञान में परिणत और राग द्वेषरहित आत्माको मनोगुप्तिका अभाव है ऐसा मानना पडेगा. परंतु उपर्युक्त रागद्वेपरहित ज्ञानपरिणत आत्मामें भी मनोगुप्ति है आगममें ऐसा माना है. अथवा ' मनुते य आत्मा स एव मनो भण्यते' अर्थात् जो आत्मा विचार करता है उनको मन कहना चाहिये. ऐसा आत्मा जब रागद्वेष परिणामसे परिणत होता नहीं तब उसको मनोगुप्ति कहनेमें हर्ज नहीं है, अथवा - सम्यग्योगनिग्रहो मुप्तिः ' यह गुप्तिका लक्षण है. दृष्ट फल-कीर्ति, आदर इत्यादिक दृष्टफलकी अपेक्षाके बिना वीर्यपरिणामरूप जो योग उसका निरोध करना अर्थात् रामादि कार्योको योग कारण है. उसका निरोध करनेसे मनोमुप्ति होती है. तात्पर्य यह है कि मनोयोगसे जीवमें रागदेषादिक परिणाम उत्पन्न होते हैं. EMEEN
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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