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________________ आधामः मृलामधना १९७९ पुमालविवाइयोदयेण मणषयण कायजुस्सस्स ॥ जीवस्स जाहु सत्ती कम्मागमकारण जोगो ।। इति वचनाच योगशब्देनात्र वीर्यमुफयते । अलिगादिणियति विपरीतार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वात्परदुःखोत्पत्तिनिमित्तवाचाधर्माचा कापी व्यायतिः सा पन्ना तथाविधवाभत्तिनिमित्तवीर्यरूपेणापरिणतिरात्मन इत्यर्थः । मोणं सकलवाक्प्रवृसिनिमित्तवीर्यनिरोधो जीवस्य । अयोग्यवनो न वदत्येव, प्रेक्षापूर्वकारितया योग्य तु वक्ति न वेति प्रथमा वाम्गुप्तिषासमितिस्तु योग्यवचसः कतृतन्यनयो विशेषः सक्यः । मौनपक्षे तु शंकानवकाश एव ।। प्रवचनमाताओंका व्याख्यान आचार्य सविस्तर करते हैं. प्रथमतः मनोगुप्ति और वाम्गुप्तिका लक्षण अर्थ-रागद्वेषसे मन परावृत्त होना यह मनोगुप्तिका लक्षण है, असत्य भापणादिकसे निवृत्त होना अथवा मौन धारणा करना यह वचनगुप्तिका लक्षण है. शंका--प्रवृत्त हुये मनकी गुप्ति होती है अथवा रागद्वेष में अप्रवृत्त मनकी गुप्ति होती है ? यदि मन शुभ कार्य में प्रवृत्त हुआ है नो उसका रक्षण करनेकी क्या आवश्यकता है. और यदि किसी कार्यमें वह प्रवृत्त ही नहीं हैं और यह यदि असद्प है तो उसके रक्षणकी जरूरत ही क्या है । जो चीज स्वयं मद्रप होगी तो उसमें अपाय होने की संभावना रहती है अतः उसको अपायसे बचाना योग्य होगा. असनका न नाश होता है और न रक्षण होता है. . और भी हम आपको पूछते हैं कि, मन शब्दका आप क्या अर्थ करते है. मन शब्दका द्रव्यमन ऐसा अर्थ होता है या भावमन ऐसा अर्थ आप मानते हैं? द्रव्य वर्गणासे बना हुआ जो उसको ही हम मन कहते हैं ऐसा यदि कहोगे तो उसका अपाय स्या चीज है जिससे तुम उसको पचना चाहते हैं अथवा अन्य पदार्थ के द्वारा उसका रक्षण करनेसे भी कोनसी फलनिष्पत्ति होगी? क्या आत्माके परिणाम अशुभ फल उत्पन्न करेंगे ' अर्थात द्रन्पांतरके सहायसे आत्मामें अशुभ परिणाम उत्पन्न नहीं होते हैं. इसवास्ते आत्माका अपायसे रक्षण करना व्यर्थ है. नो इंद्रियमतिज्ञानावरण कर्मफे क्षयोपशमसे जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है उसको मन कहते हैं ऐसा यदि १७२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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