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मूलाराधना
आश्वासः
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नो भागमभावसामायिक-संपूर्ण सावधयोगोंसे विरक्त ऐसे आत्माके परिणामको नो आगमभाव सामायिक कहते हैं. यही सामायिक प्रकृत विषयमें ग्राम है.
आगमभावसामायिक-सामायिक शास्त्रका ज्ञान जिसका सांप्रतमें उपयोग हो रहा है
चतुर्विंशतिस्तव -- इस भरतक्षेत्र में पैंर्तमानकालमें वृपमनाथसे महावीर तक चोवीस तीर्थकर होगये हैं। उनमें अर्हन्तपना वगैरे अनंतगुण हैं. उनको जानकर तथा उनके ऊपर श्रद्धान रखते हुये उनकी स्तुति करना यह चकातिम्तव है.
चंदना-रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, बुद्धसाधु, इनके उत्कृष्ट गुणाको जानकर श्रद्धा माहित होता हुवा अभ्युत्थान और प्रयोग ऐसे भेदसे दो प्रकारके विनयों में प्रवृत्ति करना यह वंदना आवश्यक है. इस अभ्युत्थान और प्रयोगके और भी अनेक भद है।
यह बंदना कार्य किसको करना चाहिये, किसके प्रत्ति करना चाहिय, किस समय में और कितन चार करना चाहिये? अभ्युत्थान-ऊठकर आदरसे खड़े होना यह कर्तव्य किसने बताया है ? तथा किस फलकी अपेक्षा करके यह करना चाहिये । पूर्वकालमें कर्मभूमीमें विनयको कर्तव्य कर्म समझकर सर्व जिनश्वरोने उसका उपदेश दिया है यह कर्तव्य करनेसे मानकपायका नाश होता है, बहुमान करनेका श्रेय मिलता है. अथवा गुरुजन विनय करनेवालाको आदरकी दृटीसे देखते है. तीर्थकरोकी आज्ञा हमने शिरोधार्य की है ऐसा सिद्ध होता है. इस विनयसे ज्ञान और धर्मकी आराधना होती है. परिणामांमें निर्मलता, निष्कपटता और संतोष ये फल प्राप्त होते हैं. इन फलोंकी प्राप्तिके लिये यह कर्तब्य वंदना करनेवालाको करना चाहिये. विनय करनेवाला गवरहित, संसारभीरु, आलस्थरहित स्वभावयुक्त, अनुग्रहकी इच्छा रखनेवाला, अन्य व्यक्तिओंके गुण प्रकाशित करनेवाला, संघवत्सल, एवंविधगुणविशिष्ट होना चाहिये. मुनिओंको श्रावकके आनेपर ऊठकरके खडे होना योग्य नहीं है. अथवा पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनिओंका आगमन होनेपर भी ऊठना योग्य नहीं है, जो मुनि रत्नत्रयमें, और तपश्चरणमें तत्पर हैं वे आनेपर अभ्युत्थान करना योग्य है, जो सुखके वश होकर अपने आचारमें शिथिल हो गये है उनके आनेपर ऊठ करके खडे हो जानेसे कर्मबंध होता है, सुखशीलोंका विनय करनेसे प्रमाद उत्पन्न होता है, और जादा प्रमादी बनानेका साधन हो जाता है.
संसारभीक मुनिओंके आनेपर अभ्युत्थान करना चाहिये, उससे अशुभ कर्मकी निर्जरा होती है. संसार
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