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लाराधना
आवास:
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भीरुता सिपर जोर वृद्धिंगत होती है. जोश और को एटाना है अथवा सदादि अनुयोगोंका शिक्षण देता है वह व्यक्ति यदि अपनेसे रत्नत्रयसे हीन है तोभी उसके आनेपर उठकर खड़े होना चाहिये. जो जो उसके पास अध्ययन करते हैं वे सवजन उठकर खडे होवें. वसतिकास्थानसे, कायभूमीसे (?) भिक्षा लेकर लौटते समय, जिनमंदिरसे आते समय, गुरुके पाससे आते वख्त अथवा ग्रामांतरसे आते समय ऊठना चाहिये. गुरुजन जब बाहर जाते हैं अथवा बाहरसे आते है, तबतब अभ्युत्थान करना चाहिये. इसी प्रकारसे इतर बातें भी जाननी चाहिये.
पंचनमस्कारोच्चारण करते समय प्रथमनः भूभिपर हाथ जोडकर एक. नमस्कार करना चाहिये. नवा चतुर्विशतिम्नबनके प्रारंभमें ही नम्र होकर एक नमस्कार करना चाहिये. प्रत्येक दिशामें तीन आवर्त कर एक नमस्कार करना चाहिये, ऐसा करने चार दिशाओमें चार नमस्कार और बारा आवत होते है. (हमने इसका अर्थ संक्षेपमे लिखा है. इसका खुलासा मूलाचार ग्रंथमें पडावश्यकाधिकार की १०४ गाथामें वसुनंदि आचायेने किया है पाठकगण वहां देख ले..)
अब प्रतिक्रमणका विवरण करते हैं
अशुभ प्रवृत्तीसे निवृत्त होना प्रतिक्रमण है. उसके छह भेद हैं. जैसे नामप्रतिक्रमण, स्थापनाप्रतिक्रमण द्रव्यप्रतिक्रमण, क्षेत्रपतिक्रमण, कालपतिक्रमण, और भावप्रतिक्रमण, अयोग्य नामोंका उच्चारण न करना यह नाम प्रतिक्रमण है, भर्वदारिका, स्वामिनी इत्यादिक अयोग्य नामोंका उच्चार न करना यह नामप्रतिक्रमण है.
स्थापना प्रतिक्रमण ---आमाभास-हरिहरादिकोंकी पतिमायें, बस और स्थावरोंके चित्र, जो कि रंगके द्वारा लिख गये हैं अथवा पाषाण, लकही इत्यादिकोंमें उकिरे गये हैं इन सबको स्थापना कहते हैं. आमाभासकी प्रतिमाके आगे खडे होकर हात जोडना, मस्तक नम्र करना, उनकी गंधादिद्रव्योंके द्वारा पूजा करना यह कार्य नहीं करना चाहिये, इस प्रकारके स्थापनाका त्याग होनेसे स्थापना प्रतिक्रमण होता है. अथवा सजीवोंकी वा स्थावरजीवोंकी जो स्थापनायें होती है उसका नाश न करना, मर्दन न करना, ताहन न करना, यह भी स्थापना प्रतिक्रमण है.
द्रव्यप्रतिक्रमण-वास्तु, क्षेत्र, धनधान्यादि दशप्रकारके परिग्रहोंका त्याग करना, उद्गम, उत्पादनादि
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