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मूलाराधना
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दोपयुक्त वसतिका उपकरण व आहार इनका त्याग करना, जो आहारादिक पदार्थ अयोग्य हैं, अभिलापको अधिकता उत्पन्न करते हैं, जिनसे उन्मत्तता और संक्लेशपरिणाम बढते हैं ऐसे आहारादिकों का त्याग करना यह सब द्रव्यमतिक्रमण हैं.
क्षेत्रप्रतिक्रमण --- पानी, कीचड, त्रमजीव, स्थावर जीव इनसे व्याप्त हुए प्रदेशो में जाने आनेका त्याग करना. अथवा जिसमें अपने रहनेसे रत्नत्रयधर्म की हानि होगी ऐसे प्रदेशका त्याग करना यह भी क्षेत्रप्रतिक्रमण है. जहां ज्ञानवृद्ध व तपोवृद्ध मुनि रहते नहीं हैं ऐसे स्थानोंको त्यागना यह क्षेत्रप्रतिक्रमण है.
कालयतिक्रमण - रात्री, तीनो संध्यासमयों में, स्वाध्याय काल, और सामायिकादि आवश्यक क्रियाके कालोंमें जाना आना गैरे क्रियाओंका त्याग करना यह कालप्रतिक्रमण है.
काल तो सदा ही रहता है उसका स्थान ही नहीं सकता परंतु उस कालमें होनेवाली क्रियाओंका वह काल आधार है उसके साहचर्य उन क्रियाओं को भी काल कहते हैं,
भावप्रतिक्रमण -- मिथ्यात्व असंयम, कपाय, रागद्वेष, संज्ञा, आहार, भय, परिग्रह और मैथुनकी अभिलापा, निदान और आर्तध्यान, रौद्र ध्यान इत्यादिक अशुभ परिणाम व पुण्यालायके कारणभूत अशुभपरिणाम इन सबको यहां भाव कहते हैं. उनसे निवृत्त होना भावप्रतिक्रमण है ऐसा किसी आचार्योंका मत हैं. कोर आचार्य प्रतिक्रमणके चार भेद कहते हैं
नामप्रतिक्रमण - द्रव्य, गुण, क्रिया, जाति इत्यादि निमियोंके बिना ही किसीका प्रतिक्रमण ऐसा नाम रखना यह नाम प्रतिक्रमण हैं.
स्थापना प्रतिक्रमण - विशिष्ट जीव द्रव्यके शरीराकारकी सदृशताकी अपेक्षा चित्रादिकोंमें अशुभ परि ग्रामों की स्थापना करना वह स्थापना प्रतिक्रमण हैं.
आगमद्रव्यप्रतिक्रमण - प्रमाण, नय, निक्षेप वगैरहके द्वारा प्रतिक्रमणावश्यक ग्रंथका स्वरूप जो जानता हैं परंतु वर्तमानकालमें प्रतिक्रमण के सूत्रों में उसका उपयोग लगा नहीं है, परंतु आगामिकाल में उत्पन्न होनेवाले ज्ञानरूप प्रतिक्रमणका जो कारण हैं ऐसे जीवको आगमद्रव्यप्रतिक्रमण कहते हैं.
नो आगमद्रव्यप्रतिकपणके तीन भेद हैं, ज्ञायकशरीर, भावि और वृद्वयतिरिक्त. जैसे प्रतिक्रमण
अश्वा
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