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________________ मूलाराधना ९२६ मध्यस्थों न कपिः शक्यः क्षणमायासितुं यथा ॥ मनस्तथा भवेनैव मध्यस्थं विषयैर्विना ॥ ७९४ ।। विजयोत्रया मक्कड खणमवि मत्थो अत्थिदुं ण जहा सक्केति मर्कटकः क्षणमपि मध्यस्थो निर्विकारः सन् स्थातुं न शक्नोति । तहा मणो विसरहिं विया मज्झत्थो खणमवि ण होदि तथा मनो विषयैः शब्दादिनिमित्ता रागादय इह विषयशब्दवाच्या विषयकार्यस्वात् । ततोऽयमर्थः, भत्र रागद्वेषौ विना मध्यस्थं मनो न भवति । ज्ञानभावनायामसत्यां रागद्वेपयोगी व्यार अर्थ मनसी मध्यस्थं करोतीत्याख्यायते । यस्मान्मनसोऽमाध्यस्थ्यमस्ति संनिहितमनोज्ञामनो विषय रागेपसहचारितया - ज्ञानरूपी श्रृंखलासे न बंधे हुए मनकी चेष्टाओं का वर्णन -- अर्थ - वानर एकक्षण पर्यन्त भी स्थिर अर्थात् निर्विकार एकस्थानमें रहता नहीं. मन भी विषयों के विना स्थिर नहीं रहता है. हमेशा विषयों में विचरता है. अर्थात् हमेशा शब्द रस, स्पर्श चगैरे विषयोंका निमित्त पाकर यह रागद्वेषोंसे युक्त हुआ ही करता है. विषयोंसे निवृत्त होकर माध्यस्थ भावमें यह रममाण होता नहीं, सतत ज्ञानका अभ्यास न होनेसे इसकी रागद्वेषमें परिणति हो रही है. परंतु ज्ञानका अभ्यास करनेसे माध्यस्थभाव मनमें उत्पन्न होता है, मनोज्ञ इष्ट विषय और अमनोज्ञ अनिष्ट विषय के सहवाससे मनमें क्रम से रागद्वेष उत्पन्न होते हैं, तब माध्यस्थ भावका लोप होता है. ता सो उहण मणमक्कडओ जिणोवरसेण ॥ रामदेवत्र यिदं तो सो दो ण काहिदि से ॥ ७६५ ॥ सदा रमयितयोऽसौ जिनवाक्यवने ततः ॥ रागद्वेषादिकं दोषं करिष्यति तती न सः ॥ ७९५ ॥ विजयोश्याता तस्मात् । सो मणकओ मनोमर्कटः । उक्हणो इतस्तत उल्लंधनपरः । रामेव्यणियद सर्वकाळे रमयितव्यः क जिणोषसम्म जिमागमे। तो ततो जिनागमरतेः । सो मनोमर्कटः । दोस रागद्वेषादिण काहिदि न करिष्यति । से तस्य ज्ञानाभ्यासकारिणः ॥ अर्थ -- तब यह मनोमर्कट इतस्ततः कूदने लगता है. इस मनोमर्कटको जिनागमके अभ्यास में दिनरात तत्पर करना चाहिये, जिससे यह रागद्वेषादिक विकारको छोड देगा. आश्वासः ६ ९२६
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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